सामान्य संपदा संसाधनों" से आप क्या समझते हैं?

 

"सामान्य संपदा संसाधनों" से आप क्या समझते हैं?

सहकारिता का विचार हमारे देश में आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व अपनाया गया तथा महसूस किया गया था कि इसके द्वारा अनेक ग्रामीण तथा शहरी समस्याओं को हल किया जा सकेगा।  देश को स्वतंत्र हुए ५७ वर्ष हो चुके हैं, परन्तु सहकारिता के संबंध में हमारी उपलब्धियां केवल आलोचनाओं एवं बुराइयों तक ही सीमित रह गयी हैं, जबकि लक्ष्य इसके विपरीत था।  आखिर ऐसी कौन सी बात है जिससे हमें यह प्रतिफल दिखाई दे रहा है।  सन १९०४ में सर्वप्रथम यह विचार अपनाया गया।  उस समय देश परतंत्र था।  अत: विदेशी शासकों नए अपने हितों को ध्यान में रखकर इसे ज्यादा पनपने नहीं दिया।  परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ती के बाद हमारे देशवासियों को ही यह कार्य-भार सौंपा गया।  फिर भी अभी तक अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो सके हैं।  अत्: इस पर गम्भीरता से विचार करने कि आवश्यकता है।  सर्वप्रथम तो यह तय करना होगा कि सहकारिता को वास्तविक रूप से हम ग्रामीण जीवन में उतारना चाहते हैं या घोषणा पत्रों तथा सरकारी एवं सहकारी दिखावे के रूप में इसे कार्यालयों तक ही सीमित रखना चाहते हैं।  वास्तव में सहकारिता कोई सैधांतिक बात नहीं है, बल्कि इसका गहरा संबंध तो सामान्य व्यक्ति कि भावना से है जहां निश्चित रूप से यह अपने उद्देश्यों में सफल हो सकती है।

उपभोक्ता माँग को, यहाँ विचारणीय नहीं माना जाता। लोक चयन सिद्धांत कहता है कि उपभोक्ता की मांग को किसी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया के। माध्यम से प्रकाश में लाया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए किसी भी लोकतंत्र में नागरिक अपना अधिमान व्यक्त करने के लिए सार्वजनिक वस्तुओं/सेवाओं की प्रमात्रा के पक्ष में अथवा विपक्ष में सुस्पष्ट रूप से मत दे सकते हैं। माध्यिका मतदाता चयन के अधिमान को माँग की पहचान स्वीकार किया जाता है। बहरहाल, स्थानीय सरकार द्वारा प्रदत्त सार्वजनिक वस्तुओं/सेवाओं के प्रत्येक समूह हेतु 'माध्यिका मतदाता चयन शात करना दुष्कर अथवा महंगा हो सकता है। इसके अलावा, प्रतिनिधिक लोकतंत्र में. निर्वाचित राजनीतिज्ञ, जो सार्वजनिक वस्तू/सेवा प्रावधान की प्रमात्रा चुनते हैं. शायदा जनता की पसंद प्रकट न कर पाते हों। फिर भी स्थानीय सरकारें एक लंबे समय से स्थानीय सार्वजनिक वस्तुएँ (एवं सेवाएं प्रदान करती आ रही हैं. उनके चयन काफी हद तक राजनीतिक एवं नौकरशाही व्यवस्था के नियंत्रण को ही व्यक्त करते हैं। इस प्रकार, यहाँ 'नागरिक-उपभोक्ता चयन की व्याख्या का अभाव दृष्टिगत होता है। टाइबाउट इसकी व्याख्या निम्नवत् प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। 6.2.1 टाइबाउट मॉडल टाइबाउट का मानना था कि सार्वजनिक वस्तुओं संबंधी उपभोक्ता के अधिमान/चयन का स्थानीय सरकारों के किसी प्रतिस्पर्धी महानगरीय बाजार- के माध्यम से प्रग्रहण किया जा सकता है। उक्त विद्वान के पास स्थानीय सार्वजनिक वस्तुओं पर व्यय का स्तर निर्धारित करने हेतु एक 'बाजार सरीखा समाधान है। इसके लिए. वह मसोवसैम्युल्सन के विश्लेषी प्राधार को आगे बढ़ाते हैं। सार्वजनिक वस्तुओं के प्रति मसोवसैम्युल्सन के दृष्टिकोण में मुख्य मुद्दा है - 'उस क्रियाविधि का अभाव' जिसके द्वारा सार्वजनिक वस्तुओं हेतु उपभोक्ता अधिमान मापे जा सकें। ऐसा इसलिए है कि बुद्धि संपन्न उपभोक्ता वर्ग कम कर चुकाने के लिए वस्तुओं के लाभ विषयक अपने अधिमान कम करके बता सकता है। टाइबाउट का सरोकार इन उपभोक्ता अधिमानों को 'सहीसही उजागर करवाने से ताल्लुक रखता है ताकि वह निजी वस्तुओं के उपभोग की भाँति संतुष्ट महसूस कर सकें। इससे उस पर तदनुसार ही कर लगाया जा सकेगा। टाइबाउट का सिद्धांत कुछ अवधारणाओं पर आधारित है।

हमारे देश के सर्वागीण विकास कि दो प्रमुख धाराएँ हैं

() ग्रामीण विकास () शहरी विकास।  ग्रामीण विकास का सम्बन्ध देश कि ७० प्रतिशत जनसंख्या से है, जबकि शहरी विकास ला सम्बन्ध देश की ३० प्रतिशत जनसंख्या से है।  यातायात एवं संचार की सुविधाओं नए देश में शहरीकरण को बहुत अधिक प्रोत्साहित किया है।  हर व्यक्ति किसी किसी बड़े शहर में रहना चाहता है, भले ही वहां का जीवन कष्टपूर्ण हो।  अत्: हमें विकास की दिशा को पूर्णत: ग्रामीण क्षेत्रों की ओर मोड़ना होगा, और इस कार्य के अंतर्गत  हमें गाँवों में शहरीकरण को प्रोत्साहन देना होगा, अर्थात वे सब सुविधाएँ जिनके कारण व्यक्ति गाँवो से शहर की ओर भाग रहा हैगाँवों  में उपलब्ध करनी होगी।  इस महत्वपूर्ण कार्य को सहकारिता के माध्यम से ही संपन्न किया जा सकता है।  गाँधी जी भी कहा करते थे : “बिना सहकार नहीं उद्धार

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