FREE IGNOU MPS-002 अन्तर्राष्ट्रीय संबंधः सिद्धांत एवं समस्याएँ Solved Assignment July 2024–Jan 2025
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FREE IGNOU MPS-002 अन्तर्राष्ट्रीय संबंधः सिद्धांत एवं समस्याएँ Solved Assignment July 2024–Jan 2025 |
भाग - 1
1. अन्र्तराष्ट्रीय संबंध क्या हैं? अर्न्तराष्ट्रीय संबंधों, अन्र्तराष्ट्रीय राजनीति और वैश्विक राजनीति के बीच अंतरों की व्याख्या कीजिए।
अंतर्राष्ट्रीय संबंध (International Relations) एक ऐसा क्षेत्र है जो विभिन्न देशों, संगठनों, और वैश्विक अभिनेताओं के बीच राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक संबंधों का अध्ययन करता है। इसका मुख्य उद्देश्य यह समझना होता है कि विभिन्न राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ एक-दूसरे के साथ कैसे संवाद करती हैं, सहयोग करती हैं, और संघर्ष करती हैं। यह अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर प्रभाव डालने वाले मुद्दों जैसे कि युद्ध, शांति, व्यापार, मानवाधिकार, और पर्यावरणीय समस्याओं को शामिल करता है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, और वैश्विक राजनीति के बीच अंतरों की व्याख्या:
अंतर्राष्ट्रीय संबंध (International Relations):
परिभाषा: यह एक अध्ययन क्षेत्र है जो विभिन्न देशों और अन्य अंतर्राष्ट्रीय अभिनेताओं के बीच के संपर्कों, संबंधों और संरचनाओं को समझने का प्रयास करता है। इसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक मुद्दों का विश्लेषण शामिल होता है।
विशेषताएँ: इसमें विभिन्न थ्योरीज़, जैसे कि यथार्थवाद (Realism), आदर्शवाद (Liberalism), और संरचनात्मकता (Constructivism), शामिल होती हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और व्यवहार को समझने में मदद करती हैं। यह शांति, सुरक्षा, और युद्ध के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति (International Politics):
परिभाषा: यह विशेष रूप से राजनीति और शक्ति के खेल पर ध्यान केंद्रित करता है जो विभिन्न राष्ट्रों के बीच होता है। इसमें शक्ति संतुलन, कूटनीति, और युद्ध की संभावना शामिल होती है।
विशेषताएँ: अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को अक्सर शक्ति, राष्ट्रीय हितों, और राजनीतिक रणनीतियों के संदर्भ में देखा जाता है। इसमें नीति निर्माण, कूटनीतिक संबंध, और अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों का विश्लेषण किया जाता है। यह शक्ति और प्रभाव के खेल पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करता है।
वैश्विक राजनीति (Global Politics):
परिभाषा: यह एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है जो केवल देशों तक सीमित नहीं रहता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों (NGOs), और अन्य वैश्विक मुद्दों जैसे कि जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, और वैश्विक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देता है।
विशेषताएँ: वैश्विक राजनीति वैश्विक स्तर पर होने वाली घटनाओं और मुद्दों का विश्लेषण करती है और इसमें देशों के साथ-साथ अन्य वैश्विक अभिनेताओं की भूमिका भी शामिल होती है। यह एक अधिक समावेशी दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो कि आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण को भी सम्मिलित करता है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, और वैश्विक राजनीति के बीच अंतर:
फोकस: अंतर्राष्ट्रीय संबंध मुख्यतः विभिन्न देशों और उनके बीच के संबंधों पर केंद्रित होता है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अधिक विशिष्ट रूप से राजनीतिक शक्ति और कूटनीति पर ध्यान देती है। वैश्विक राजनीति, इसके विपरीत, व्यापक मुद्दों और अभिनेताओं को ध्यान में रखती है, जो कि केवल राष्ट्रों तक सीमित नहीं होते।
दृष्टिकोण: अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का दृष्टिकोण विश्लेषणात्मक और सिद्धांतात्मक होता है, जो विभिन्न थ्योरीज़ के माध्यम से घटनाओं को समझने का प्रयास करता है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक और रणनीतिक होता है, जबकि वैश्विक राजनीति में व्यापक वैश्विक समस्याओं और अभिनेताओं की जटिलताओं को शामिल किया जाता है।
विषय क्षेत्र: अंतर्राष्ट्रीय संबंध मुख्यतः राजनीतिक और कूटनीतिक विषयों पर केंद्रित होता है, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति राजनीति और शक्ति पर, जबकि वैश्विक राजनीति वैश्विक मुद्दों और बहुपरकारी संगठनों पर ध्यान देती है।
इन अंतरों को समझना महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विभिन्न परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण को समझने में मदद करता है जो वैश्विक समस्याओं और नीतियों को आकार देते हैं।
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2.अर्न्तराष्ट्रीय संबंधों में निर्भरता सिद्धान्त के मुख्य तर्कों को छाँटिए।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में निर्भरता सिद्धांत (Dependency Theory) एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जो विशेष रूप से विकासशील देशों की स्थिति और उनके विकास पर ध्यान केंद्रित करता है। यह सिद्धांत 20वीं सदी के मध्य में उभरा और इसे लैटिन अमेरिकी विचारकों द्वारा प्रमुख रूप से विकसित किया गया। निर्भरता सिद्धांत का मुख्य तर्क यह है कि वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था में विकसित और विकासशील देशों के बीच असमानता और निर्भरता के जटिल रिश्ते हैं।
विकसित और विकासशील देशों के बीच असमानता: निर्भरता सिद्धांत का मुख्य तर्क यह है कि वैश्विक पूंजीवादी प्रणाली में विकसित (उन्नत) और विकासशील (पिछड़े) देशों के बीच असमानता है। विकसित देशों ने अपनी औद्योगिक और तकनीकी प्रगति के माध्यम से एक आर्थिक श्रेष्ठता प्राप्त की है, जबकि विकासशील देशों को अक्सर कच्चे माल की आपूर्ति और सस्ते श्रम के स्रोत के रूप में देखा जाता है। इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में असमानता बनी रहती है और विकासशील देशों की प्रगति सीमित रहती है।
अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद और निर्भरता: निर्भरता सिद्धांत का यह तर्क है कि अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी प्रणाली ने विकासशील देशों को एक शोषणात्मक आर्थिक प्रणाली में फंसा दिया है। विकसित देशों की कंपनियाँ और वित्तीय संस्थाएँ विकासशील देशों के संसाधनों का शोषण करती हैं और उनकी श्रम शक्ति का उपयोग करती हैं, जिससे विकासशील देशों की आर्थिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता सीमित हो जाती है। यह निर्भरता एक अक्षम विकास चक्र का निर्माण करती है, जहां विकासशील देशों को उच्चतम मूल्यवर्धन वाले उत्पादों की उत्पादन और निर्यात के बजाय कच्चे माल और प्राथमिक उत्पादों पर निर्भर रहना पड़ता है।
निवेश और आर्थिक सहायता का प्रभाव: निर्भरता सिद्धांत यह भी बताता है कि विकसित देशों से मिलने वाली निवेश और आर्थिक सहायता अक्सर विकासशील देशों की स्थिति को और भी खराब करती है। यह सहायता अक्सर शर्तों और नियंत्रणों के साथ होती है, जो विकासशील देशों की आर्थिक नीतियों पर प्रभाव डालती है और उन्हें विदेशी कंपनियों और देशों के अधीन बना देती है। इसके परिणामस्वरूप, विकासशील देशों की घरेलू अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भरता बढ़ जाती है और उनकी स्वायत्तता कम हो जाती है।
आंतरिक असमानता और सामाजिक प्रभाव: निर्भरता सिद्धांत का यह भी तर्क है कि वैश्विक पूंजीवाद के प्रभाव से विकासशील देशों में आंतरिक सामाजिक असमानता बढ़ जाती है। विदेशी निवेश और व्यापार अक्सर केवल एक छोटे से अभिजात वर्ग को लाभ पहुंचाते हैं, जबकि सामान्य जनता की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता। यह सामाजिक और आर्थिक असमानता विकासशील देशों के भीतर राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक संघर्ष को जन्म देती है।
विकास के वैकल्पिक रास्ते: निर्भरता सिद्धांत के समर्थक मानते हैं कि विकासशील देशों को अपनी निर्भरता को समाप्त करने के लिए वैकल्पिक विकास मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। इसमें आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयास, स्थानीय संसाधनों और श्रम का अधिकतम उपयोग, और विदेशी नियंत्रण के प्रति प्रतिरोध शामिल हो सकता है। इसके लिए आंतरिक विकास नीतियों की आवश्यकता होती है, जो आर्थिक और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दें और विदेशी निर्भरता को कम करें।
वैश्विक पूंजीवाद और तंत्र: निर्भरता सिद्धांत यह भी मानता है कि वैश्विक पूंजीवादी तंत्र का ढांचा विकासशील देशों की शोषणात्मक स्थिति को स्थिर करता है। यह तंत्र वैश्विक व्यापार, वित्तीय प्रणालियों, और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा संचालित होता है, जो विकासशील देशों की समस्याओं और उनकी स्वायत्तता को नकारते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के इस तंत्र में विकासशील देशों की स्थिति को स्थिर करने वाले असंतुलित शक्तियों और संरचनाओं का उल्लेख किया जाता है।
निष्कर्ष:
निर्भरता सिद्धांत वैश्विक आर्थिक और सामाजिक असमानता की एक महत्वपूर्ण व्याख्या प्रदान करता है, विशेष रूप से विकासशील देशों की संदर्भ में। इसके तर्क वैश्विक पूंजीवादी प्रणाली की आलोचना करते हैं और दिखाते हैं कि कैसे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, निवेश, और आर्थिक सहायता के माध्यम से विकासशील देशों की निर्भरता और असमानता को स्थिर किया जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, विकासशील देशों को एक आत्मनिर्भर और न्यायपूर्ण विकास मॉडल अपनाने की आवश्यकता है, जो उनकी स्वतंत्रता और विकास की संभावनाओं को बढ़ावा दे सके।
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3. उदारवाद की मुख्य अवधारणायें क्या हैं? यह यथार्थवाद से किस प्रकार अलग हैं?
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन विभिन्न सिद्धांतों के माध्यम से किया जाता है, जिनमें उदारवाद (Liberalism) और यथार्थवाद (Realism) प्रमुख हैं। उदारवाद और यथार्थवाद दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और संबंधों को समझने के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। इस लेख में, हम उदारवाद की मुख्य अवधारणाओं को विस्तार से समझेंगे और यह जानेंगे कि यह यथार्थवाद से किस प्रकार अलग है।
उदारवाद की मुख्य अवधारणाएँ:
सहयोग और साझेदारी: उदारवाद का एक महत्वपूर्ण तर्क यह है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में सहयोग और साझेदारी संभव है। यह सिद्धांत मानता है कि राष्ट्र केवल प्रतिस्पर्धा और संघर्ष नहीं करते, बल्कि वे सहयोग और साझेदारी के माध्यम से भी एक दूसरे के साथ संबंध बना सकते हैं। उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, कानूनों, और समझौतों के माध्यम से देशों के बीच सहयोग और शांति स्थापित की जा सकती है।
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ और कानून: उदारवाद अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और कानूनी ढांचे की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता है। इसके अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे कि संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन (WTO), और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये संस्थाएँ संघर्षों को सुलझाने, कानूनों का पालन करने, और वैश्विक समस्याओं का समाधान करने में सहायक होती हैं।
डेमोक्रेसी और आंतरराष्ट्रीय शांति: उदारवादी सिद्धांत यह मानता है कि लोकतांत्रिक देशों के बीच युद्ध की संभावना कम होती है। इस सिद्धांत के अनुसार, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाएँ आमतौर पर शांतिपूर्ण होती हैं क्योंकि वे जनसंवेदनाओं और लोकतांत्रिक संस्थानों के द्वारा नियंत्रित होती हैं। उदारवादी विचारक मानते हैं कि जब देश लोकतांत्रिक होते हैं, तो वे आपसी सहयोग और शांति की दिशा में अग्रसर होते हैं।
स्वतंत्रता और मानवाधिकार: उदारवाद स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के महत्व को मान्यता देता है। यह सिद्धांत मानता है कि व्यक्ति के अधिकार और स्वतंत्रता को सुरक्षित करना अंतर्राष्ट्रीय शांति और समृद्धि के लिए आवश्यक है। मानवाधिकारों की रक्षा, सामाजिक न्याय, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के माध्यम से विश्व स्तर पर स्थिरता और शांति को बढ़ावा दिया जा सकता है।
अर्थशास्त्र और विकास: उदारवादी दृष्टिकोण के अनुसार, आर्थिक सहयोग और विकास अंतर्राष्ट्रीय शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुक्त व्यापार, निवेश, और आर्थिक विकास के माध्यम से देशों के बीच आपसी लाभ और समृद्धि को बढ़ावा दिया जा सकता है, जिससे संघर्षों की संभावना कम होती है।
यथार्थवाद से भिन्नताएँ:
दृष्टिकोण:
यथार्थवाद: यथार्थवाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को शक्ति और स्वार्थ के आधार पर समझता है। इसके अनुसार, देशों की प्राथमिक चिंता अपनी सुरक्षा और शक्ति को बढ़ाना होती है, और अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली अराजक और प्रतिस्पर्धात्मक होती है।
उदारवाद: इसके विपरीत, उदारवाद विश्वास करता है कि सहयोग, साझेदारी, और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ विश्व शांति और स्थिरता को बढ़ावा दे सकती हैं। यह मानता है कि देशों के बीच सहयोग और समझौते संभव हैं और ये शांति की दिशा में योगदान कर सकते हैं।
संघर्ष और शांति:
यथार्थवाद: यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार, संघर्ष और युद्ध अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वाभाविक हिस्से होते हैं। यह मानता है कि राष्ट्र अपने स्वार्थ और सुरक्षा को बढ़ाने के लिए संघर्ष करेंगे।
उदारवाद: उदारवाद संघर्ष की संभावना को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, कानूनों, और सहयोग को महत्वपूर्ण मानता है। यह मानता है कि शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए देशों के बीच सहयोग और समझौते आवश्यक हैं।
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ:
यथार्थवाद: यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ और कानून केवल सीमित प्रभाव डालते हैं और अक्सर शक्तिशाली देशों के हितों के अनुरूप होते हैं। यथार्थवाद के अनुसार, राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और स्वार्थ के आधार पर कार्य करते हैं, न कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और नियमों के आधार पर।
उदारवाद: उदारवाद अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और कानूनों की महत्वपूर्ण भूमिका को मानता है और मानता है कि ये संस्थाएँ शांति और सहयोग को बढ़ावा देने में सहायक होती हैं।
डेमोक्रेसी और युद्ध:
यथार्थवाद: यथार्थवाद लोकतंत्र की भूमिका पर कम ध्यान देता है और यह मानता है कि सभी प्रकार के राज्य, चाहे वे लोकतांत्रिक हों या अधिनायकवादी, शक्ति और सुरक्षा के लिए संघर्ष करेंगे।
उदारवाद: उदारवादी सिद्धांत के अनुसार, लोकतांत्रिक देशों के बीच युद्ध की संभावना कम होती है। यह मानता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थाएँ आमतौर पर शांति और सहयोग की दिशा में अग्रसर होती हैं
निष्कर्ष:
उदारवाद और यथार्थवाद दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और राजनीति को समझने के लिए महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। जहां यथार्थवाद शक्ति और स्वार्थ पर केंद्रित होता है और संघर्ष की संभावना को स्वीकार करता है, वहीं उदारवाद सहयोग, साझेदारी, और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करता है। इन दोनों दृष्टिकोणों की तुलना और विश्लेषण से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और संबंधों की जटिलताओं को समझने में सहायता मिलती है।
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भाग - ।।
निम्नलिखित पर लगभग 250 शब्दों (प्रत्येक) में संक्षिप्त लेख लिखिए।
6.क) सुरक्षा समुदाय"
"सुरक्षा समुदाय" एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और राजनीति में एक स्थिर और शांति-प्रवृत्त क्षेत्र की पहचान को संदर्भित करती है। यह अवधारणा मुख्यतः धार्मिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक मतभेदों को कम करने और सहयोग एवं शांति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विकसित की गई है। सुरक्षा समुदाय का विकास देशों के बीच विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, जिससे संघर्षों और युद्ध की संभावनाओं को कम किया जा सके।
सुरक्षा समुदाय की परिभाषा:
सुरक्षा समुदाय को आमतौर पर एक ऐसा समूह या क्षेत्र समझा जाता है जहां सदस्य देश अपनी सुरक्षा और शांति की गारंटी के लिए एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं और आपसी संघर्ष की संभावना को न्यूनतम मानते हैं। इसे एक ऐसे क्षेत्र के रूप में देखा जाता है जहां विवाद और युद्ध की संभावना कम होती है, और सदस्य देशों के बीच आपसी सहयोग और विश्वास की भावना प्रबल होती है।
मुख्य विशेषताएँ:
आत्म-शक्ति की आवश्यकता का अभाव: सुरक्षा समुदाय में, सदस्य देशों के बीच एक सामान्य समझ होती है कि वे एक-दूसरे को खतरा नहीं मानते हैं। इस कारण, सदस्य देशों को अपनी रक्षा के लिए बाहरी शक्ति पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं होती। इसका मतलब है कि इन देशों के बीच आपसी विश्वास और सुरक्षा की गारंटी होती है।
आपसी सहयोग और संवाद: सुरक्षा समुदाय में सदस्य देशों के बीच नियमित संवाद और सहयोग होता है। यह सहयोग विभिन्न क्षेत्रों में हो सकता है, जैसे कि आर्थिक, राजनीतिक, और सैन्य। आपसी सहयोग से विश्वास को बढ़ावा मिलता है और किसी भी प्रकार की संभावित हिंसा या संघर्ष को कम किया जाता है।
संस्थागत और कानूनी ढांचा: सुरक्षा समुदाय अक्सर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और कानूनी ढांचों के माध्यम से समर्थित होता है। ये संस्थाएँ और ढांचे सदस्य देशों के बीच विवादों को सुलझाने, शांति बनाए रखने, और आपसी सहयोग को बढ़ावा देने का काम करती हैं। उदाहरण के लिए, यूरोपीय संघ (EU) और नाटो (NATO) सुरक्षा समुदाय के उदाहरण हो सकते हैं।
सांस्कृतिक और सामाजिक जुड़ाव: सुरक्षा समुदाय में, सदस्य देशों के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक जुड़ाव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक समान सांस्कृतिक या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होने से आपसी समझ और सहयोग को बढ़ावा मिलता है, जो संघर्षों को कम करने में सहायक हो सकता है।
उदाहरण और विश्लेषण:
यूरोपीय संघ (EU): यूरोपीय संघ एक प्रमुख सुरक्षा समुदाय का उदाहरण है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोप में शांति और स्थिरता बनाए रखने के उद्देश्य से EU की स्थापना की गई थी। EU के सदस्य देशों के बीच गहरा आर्थिक, राजनीतिक, और सामाजिक सहयोग होता है। सदस्य देशों के बीच एक दूसरे पर भरोसा और सहयोग की भावना है, जिससे युद्ध की संभावना न्यूनतम हो जाती है।
नाटो (NATO): उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) एक सैन्य सुरक्षा समुदाय का उदाहरण है। इसका उद्देश्य सदस्य देशों की सामूहिक सुरक्षा को सुनिश्चित करना है। नाटो के सदस्य देशों के बीच एक आपसी सुरक्षा समझौता होता है, जिसमें एक सदस्य पर हमला करने का मतलब सभी सदस्य देशों पर हमला माना जाता है। यह संधि सदस्य देशों को आपसी रक्षा और सहयोग की गारंटी देती है।
सुरक्षा समुदाय की अवधारणा की महत्वता:
सुरक्षा समुदाय की अवधारणा अंतर्राष्ट्रीय शांति और स्थिरता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह अवधारणा दर्शाती है कि कैसे विभिन्न देशों के बीच विश्वास, सहयोग, और संवाद के माध्यम से आपसी संघर्षों और युद्ध की संभावनाओं को कम किया जा सकता है। सुरक्षा समुदाय का विकास और सुदृढ़ीकरण देशों के बीच शांतिपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देता है और वैश्विक स्तर पर शांति की दिशा में योगदान करता है।
निष्कर्ष:
सुरक्षा समुदाय एक ऐसा ढांचा है जो सदस्य देशों के बीच शांति, विश्वास, और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया है। इसके माध्यम से, देशों के बीच संघर्ष और युद्ध की संभावनाओं को कम किया जा सकता है और एक स्थिर और सहयोगपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय वातावरण का निर्माण किया जा सकता है। यह अवधारणा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में शांति और सुरक्षा के महत्व को रेखांकित करती है और वैश्विक स्तर पर स्थिरता को बनाए रखने में सहायक होती है।
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ख) " कृत्रिम बुद्धिमता और अन्र्तराष्ट्रीय संबंध
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) ने आधुनिक समाज के विभिन्न पहलुओं में क्रांति ला दी है, और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों (International Relations) पर इसका प्रभाव भी व्यापक है। AI तकनीकें, जैसे कि मशीन लर्निंग, डेटा एनालिटिक्स, और ऑटोमेटेड सिस्टम, ने विश्व भर में राजनीतिक, आर्थिक, और सैन्य दृष्टिकोण से नई चुनौतियाँ और अवसर उत्पन्न किए हैं। इस लेख में, हम AI के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर प्रभावों की समीक्षा करेंगे और यह देखेंगे कि कैसे यह तकनीक वैश्विक राजनीति, सुरक्षा, और कूटनीति को आकार दे रही है।
AI के प्रमुख प्रभाव:
सुरक्षा और सैन्य क्षेत्र: AI की तकनीकें सुरक्षा और सैन्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण बदलाव ला रही हैं। ऑटोमेटेड ड्रोन, साइबर सुरक्षा सिस्टम, और स्मार्ट वेपन सिस्टम्स का विकास युद्ध की रणनीतियों को बदल रहा है। AI आधारित सैन्य उपकरण तेजी से डेटा प्रोसेसिंग और निर्णय लेने की क्षमताओं को बढ़ा रहे हैं, जिससे युद्ध के तरीके और रणनीतियाँ बदल रही हैं। इसके साथ ही, AI का उपयोग साइबर युद्ध में भी हो रहा है, जहाँ यह नेटवर्क और सिस्टम पर हमलों की योजना और क्रियान्वयन में सहायता करता है।
कूटनीति और रणनीति: AI कूटनीति और रणनीति के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। डेटा एनालिटिक्स और मशीन लर्निंग का उपयोग करके देशों के राजनीतिक, आर्थिक, और सैन्य गतिविधियों का विश्लेषण किया जा रहा है। AI का उपयोग वैश्विक घटनाओं की भविष्यवाणी, राजनीतिक जोखिमों की पहचान, और कूटनीतिक रणनीतियों को विकसित करने में किया जा रहा है। यह देशों को अधिक सटीक और सूचित निर्णय लेने में मदद करता है।
आर्थिक और व्यापारिक क्षेत्र: AI वैश्विक व्यापार और अर्थशास्त्र में भी क्रांति ला रहा है। स्वचालित व्यापार विश्लेषण, आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन, और ग्राहक सेवा के लिए AI आधारित सिस्टम्स का उपयोग बढ़ रहा है। इससे देशों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सहयोग में नए आयाम जुड़े हैं। AI के माध्यम से व्यापारिक निर्णयों में तेजी और सटीकता आई है, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है।
मानवाधिकार और नैतिकता: AI के उपयोग से मानवाधिकार और नैतिकता के मुद्दे भी सामने आ रहे हैं। डेटा गोपनीयता, निगरानी, और स्वचालन के प्रभावों के कारण नए नैतिक प्रश्न उठ रहे हैं। देशों को AI तकनीक के उपयोग के संदर्भ में नियम और कानून विकसित करने की आवश्यकता है ताकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की रक्षा की जा सके। AI के नैतिक उपयोग पर ध्यान देना आवश्यक है ताकि इसका प्रभाव सकारात्मक हो और मानवता के लाभ के लिए हो।
वैश्विक सहयोग और संघर्ष: AI तकनीकें वैश्विक सहयोग और संघर्षों को भी प्रभावित कर रही हैं। कुछ देशों ने AI के विकास और अनुसंधान में सहयोग करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय साझेदारी की है, जबकि अन्य ने इसे शक्ति और प्रतिस्पर्धा के उपकरण के रूप में देखा है। AI के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक गतिशीलता को प्रभावित कर रही है। देशों के बीच AI तकनीक के प्रति दृष्टिकोण और नीतियाँ वैश्विक संबंधों को आकार दे रही हैं।
AI की चुनौतियाँ और संभावनाएँ:
सुरक्षा और गोपनीयता: AI की बढ़ती उपयोगिता के साथ सुरक्षा और गोपनीयता की चुनौतियाँ भी बढ़ रही हैं। डेटा की सुरक्षा, साइबर हमलों का खतरा, और AI आधारित निगरानी प्रणालियाँ चिंता का विषय बन चुकी हैं। देशों को AI के उपयोग के लिए मजबूत सुरक्षा और गोपनीयता मानकों को लागू करने की आवश्यकता है।
गैर-समानता और असमानता: AI तकनीक की पहुंच और उपयोग में असमानता भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच तकनीकी असमानता वैश्विक शक्ति संतुलन को प्रभावित कर सकती है। AI के लाभों को समान रूप से वितरित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समर्थन आवश्यक है।
नियामक ढांचा: AI के प्रभावी और नैतिक उपयोग के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय नियामक ढांचा की आवश्यकता है। वैश्विक मानकों और नियमों का विकास करने से AI के उपयोग के संभावित जोखिमों को कम किया जा सकता है और इसका लाभ मानवता के लिए अधिकतम किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं और इसके प्रभाव वैश्विक राजनीति, सुरक्षा, और अर्थशास्त्र पर गहरा है। AI के उपयोग से जहां नए अवसर उत्पन्न हुए हैं, वहीं इसके साथ नई चुनौतियाँ भी आई हैं। AI की प्रभावी और नैतिक उपयोगिता सुनिश्चित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, सुरक्षा मानक, और नियामक ढांचे की आवश्यकता है। यह तकनीक भविष्य में वैश्विक संबंधों को और भी अधिक प्रभावित करेगी, और इसके प्रभावों को समझना और प्रबंधित करना आवश्यक होगा।
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7. क) नया शीत युद्ध
"नया शीत युद्ध" (New Cold War) एक अवधारणा है जो वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में यूएस-चीन और यूएस-रूस संबंधों में वृद्धि हुई तनाव और प्रतिस्पर्धा को संदर्भित करती है। यह अवधारणा पुराने शीत युद्ध (1947-1991) के समान हालात का चित्रण करती है, जिसमें अमेरिका और सोवियत संघ के बीच भौतिक, राजनीतिक, और आर्थिक संघर्ष था। नया शीत युद्ध भी उसी तरह के तनाव और प्रतिकूलता को दर्शाता है, लेकिन इसके प्रमुख खिलाड़ी, मुद्दे और दृष्टिकोण भिन्न हैं।
नया शीत युद्ध के मुख्य तत्व:
अमेरिका-चीन प्रतिस्पर्धा: अमेरिका और चीन के बीच संबंधों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा नया शीत युद्ध का प्रमुख पहलू है। चीन की तेजी से बढ़ती आर्थिक शक्ति, सैन्य विस्तार, और वैश्विक प्रभाव ने अमेरिका को चिंता में डाल दिया है। व्यापार युद्ध, तकनीकी प्रतिस्पर्धा (जैसे 5G तकनीक), और भू-राजनीतिक प्रभाव (जैसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) ने दोनों देशों के बीच तनाव को बढ़ाया है। चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं और अमेरिका की नीतियों के कारण, दोनों देश आर्थिक और रणनीतिक मामलों में एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा ले रहे हैं।
यूएस-रूस तनाव: यूएस और रूस के बीच भी नए शीत युद्ध के संकेत देखे जा सकते हैं। रूस के क्रेमलिन द्वारा किए गए साइबर हमले, चुनावों में हस्तक्षेप, और सैन्य गतिविधियों (जैसे यूक्रेन पर आक्रमण) ने अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ तनाव को बढ़ा दिया है। रूस की विदेश नीति और उसके वैश्विक रणनीतिक लक्ष्यों ने पश्चिमी देशों के साथ संबंधों को और भी जटिल बना दिया है।
भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा: नया शीत युद्ध वैश्विक स्तर पर भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को भी दर्शाता है। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों द्वारा चीन और रूस के खिलाफ विभिन्न वैश्विक मोर्चे पर रणनीतियाँ अपनाई जा रही हैं। इनमें सैन्य गठबंधनों का पुनरुद्धार, आर्थिक प्रतिबंध, और वैश्विक संस्थाओं में प्रतिस्पर्धा शामिल है। यह प्रतिस्पर्धा वैश्विक शक्ति संतुलन को बदल रही है और नई चुनौतियाँ उत्पन्न कर रही है।
साइबर सुरक्षा और तकनीकी युद्ध: नया शीत युद्ध तकनीकी क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा को दर्शाता है। साइबर सुरक्षा और तकनीकी नवाचार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने वैश्विक सुरक्षा की नई चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं। डेटा गोपनीयता, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, और तकनीकी आतंकवाद के मुद्दे नए शीत युद्ध के महत्वपूर्ण हिस्से बन गए हैं।
नया शीत युद्ध की विशेषताएँ:
नॉन-स्टेट एक्टर्स और गैर-संवैधानिक तरीके: नया शीत युद्ध पारंपरिक सैन्य संघर्षों की बजाय गैर-संवैधानिक तरीकों और नॉन-स्टेट एक्टर्स के माध्यम से अधिक प्रकट हो रहा है। साइबर हमले, सूचना युद्ध, और आर्थिक दबाव अब प्रमुख उपकरण बन गए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और गठबंधन: पुराने शीत युद्ध की तरह, नया शीत युद्ध भी अंतर्राष्ट्रीय गठबंधनों और सहयोग पर निर्भर करता है। अमेरिका ने अपने पारंपरिक सहयोगियों (नाटो, जापान, ऑस्ट्रेलिया) के साथ संबंधों को मजबूत किया है, जबकि चीन और रूस ने भी अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए नए गठबंधनों का निर्माण किया है।
आर्थिक और व्यापारिक संघर्ष: व्यापारिक और आर्थिक संघर्ष भी नया शीत युद्ध का एक महत्वपूर्ण पहलू है। अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, तकनीकी निर्यात नियंत्रण, और वैश्विक सप्लाई चेन की जटिलताएँ इन संघर्षों को और बढ़ा रही हैं।
निष्कर्ष:
नया शीत युद्ध वैश्विक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है। अमेरिका, चीन, और रूस के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा और तनाव ने वैश्विक शक्ति संतुलन को बदल दिया है और नई चुनौतियाँ उत्पन्न की हैं। यह नया शीत युद्ध पारंपरिक संघर्षों की बजाय तकनीकी, आर्थिक, और साइबर क्षेत्रों में अधिक प्रकट हो रहा है। इसके प्रभाव और परिणाम को समझना और प्रबंधित करना वैश्विक स्थिरता और शांति के लिए महत्वपूर्ण है।
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ख) दो देशों के बीच संबंध सुधारने की व्याख्या
दो देशों के बीच संबंध सुधारना एक जटिल और बहुपरकारी प्रक्रिया है जो कूटनीति, संवाद, और सहयोग की ओर अग्रसर होती है। यह प्रक्रिया तनाव और विवादों को कम करने, आपसी समझ बढ़ाने, और स्थिर और फलदायी संबंध स्थापित करने के लिए की जाती है। संबंध सुधारने की यह प्रक्रिया विभिन्न तरीकों और उपायों के माध्यम से संपन्न होती है, जिनमें कूटनीतिक वार्ताएँ, व्यापारिक सहयोग, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, और साझा सुरक्षा हित शामिल हैं।
संबंध सुधारने के प्रमुख उपाय:
कूटनीतिक वार्ताएँ:
संवाद और संचार: दो देशों के बीच संबंध सुधारने के लिए नियमित और खुला संवाद महत्वपूर्ण होता है। कूटनीतिक वार्ताओं के माध्यम से देशों के बीच मुद्दों पर चर्चा की जाती है, और समाधान की दिशा में प्रयास किए जाते हैं। यह वार्ताएँ उच्चस्तरीय बैठकों, शिखर सम्मेलनों, और द्विपक्षीय संवाद के रूप में हो सकती हैं।
समझौते और संधियाँ: कूटनीतिक वार्ताओं के दौरान, देशों के बीच आपसी विवादों का समाधान करने के लिए समझौते और संधियाँ की जाती हैं। इन समझौतों में व्यापार, सुरक्षा, और पर्यावरण जैसे विभिन्न मुद्दे शामिल हो सकते हैं। यह समझौते देशों के बीच विश्वास और सहयोग को बढ़ाते हैं।
व्यापारिक और आर्थिक सहयोग:
मुक्त व्यापार समझौते: व्यापारिक संबंध सुधारने के लिए मुक्त व्यापार समझौतों का निर्माण किया जा सकता है। यह समझौते दोनों देशों के बीच व्यापारिक बाधाओं को कम करते हैं और व्यापारिक अवसरों को बढ़ाते हैं। इससे दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को लाभ होता है और आपसी संबंध मजबूत होते हैं।
आर्थिक सहायता और निवेश: एक देश दूसरे देश को आर्थिक सहायता या निवेश प्रदान कर सकता है, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों को प्रोत्साहन मिलता है। यह सहयोग न केवल आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है बल्कि राजनीतिक संबंधों में भी सुधार करता है।
सांस्कृतिक और शैक्षिक आदान-प्रदान:
संस्कृतिक आदान-प्रदान: सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों के माध्यम से दो देशों के बीच समझ और सम्मान बढ़ाया जा सकता है। सांस्कृतिक महोत्सव, कला प्रदर्शनियाँ, और शैक्षिक यात्राएँ लोगों के बीच संपर्क को बढ़ावा देती हैं और सांस्कृतिक भिन्नताओं को समझने में मदद करती हैं।
शैक्षिक सहयोग: शैक्षिक आदान-प्रदान कार्यक्रम और छात्रवृत्ति योजनाएँ भी संबंध सुधारने में सहायक होती हैं। इन कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यार्थी और शोधकर्ता दोनों देशों की संस्कृति और समाज को बेहतर समझ सकते हैं, जो दीर्घकालिक संबंधों को मजबूत करता है।
साझा सुरक्षा और रणनीतिक हित:
सुरक्षा सहयोग: साझा सुरक्षा और रणनीतिक हितों पर ध्यान केंद्रित करने से भी संबंध सुधार सकते हैं। देशों के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास, आतंकवाद विरोधी सहयोग, और सीमा सुरक्षा जैसे मुद्दों पर सहयोग करके सुरक्षा संबंधी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
संयुक्त परियोजनाएँ: दोनों देशों द्वारा मिलकर विभिन्न परियोजनाओं पर कार्य करना, जैसे कि अवसंरचना विकास, ऊर्जा परियोजनाएँ, और पर्यावरण संरक्षण, साझेदारी को मजबूत करता है और आपसी संबंधों में सुधार लाता है।
संवेदनशीलता और सम्मान:
सांस्कृतिक और राजनीतिक संवेदनशीलता: दो देशों के बीच संबंध सुधारने के लिए एक दूसरे की सांस्कृतिक और राजनीतिक संवेदनशीलताओं का सम्मान करना महत्वपूर्ण होता है। यह समझ और सम्मान दो देशों के बीच संबंधों को अधिक स्थिर और सहयोगपूर्ण बनाता है।
संघर्षों का शांतिपूर्ण समाधान: विवाद और संघर्षों का शांतिपूर्ण और संधि आधारित समाधान संबंधों में सुधार के लिए आवश्यक है। विवादों को बातचीत और समझौते के माध्यम से हल करना तनाव को कम करता है और सकारात्मक संबंधों को बढ़ावा देता है।
निष्कर्ष:
दो देशों के बीच संबंध सुधारने की प्रक्रिया एक समग्र और बहुपरकारी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। कूटनीतिक वार्ताएँ, व्यापारिक और आर्थिक सहयोग, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, और साझा सुरक्षा हित इन संबंधों को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन उपायों के माध्यम से देशों के बीच विश्वास और सहयोग बढ़ता है, और विवादों और तनावों को कम किया जा सकता है। यह प्रक्रिया एक दीर्घकालिक और स्थिर संबंधों के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होती है।
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