100% Free IGNOU MHI-03 Solved Assignment 2024-25 Pdf / hardcopy In Hindi

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भाग- 

1. वस्तुपरकता क्या है? इतिहास-लेखन में व्याख्या की क्या भूमिका है? 

वस्तुपरकता, या ऑब्जेक्टिविटी, एक ऐसी स्थिति है जहां किसी विषय या घटना को निष्पक्ष और निर्बाध दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया जाता है, बिना किसी व्यक्तिगत पूर्वाग्रह या भावनात्मक प्रभाव के। यह शैक्षणिक और शोध कार्यों, विशेषकर इतिहास लेखन में, एक महत्वपूर्ण मानक के रूप में उभरती है। वस्तुपरकता का उद्देश्य इतिहास के तथ्यों और घटनाओं को उनके वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत करना है, ताकि पाठक एक सटीक और निष्पक्ष चित्र प्राप्त कर सके। 

इतिहास-लेखन में वस्तुपरकता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इतिहासकारों को तथ्यों को एक सुसंगत और तार्किक ढंग से प्रस्तुत करना होता है ताकि पाठक उन घटनाओं को समझ सके और उनका मूल्यांकन कर सके। यह प्रक्रिया ऐतिहासिक घटनाओं को एक केंद्रीय दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने में मदद करती है, जो पाठक को पूर्वाग्रहों और व्यक्तिगत राय से मुक्त अनुभव प्रदान करती है। 

इतिहास लेखन में वस्तुपरकता की भूमिका की व्याख्या करते समय, कई बिंदुओं को ध्यान में रखा जा सकता है: 

तथ्यों की संप्रेषणीयता: वस्तुपरकता का मुख्य उद्देश्य तथ्यों को उनके वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत करना है। इतिहासकारों को सही और सटीक जानकारी एकत्र करनी होती है और उन तथ्यों को सुसंगत तरीके से प्रस्तुत करना होता है। इसमें प्राथमिक स्रोतों की समीक्षा, विश्वसनीयता की जांच और तथ्यों के विश्लेषण की प्रक्रिया शामिल है। 

पूर्वाग्रह और भ्रामकता से बचाव: इतिहासकारों को अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और पूर्वधारणाओं को दूर करना होता है। वस्तुपरकता का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि व्यक्तिगत राय या भावनात्मक प्रभाव इतिहास के विवरण को प्रभावित करें। इतिहासकार को यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके विचार और भावनाएँ तथ्यात्मक प्रस्तुति में हस्तक्षेप करें। 

स्रोतों की आलोचनात्मक समीक्षा: वस्तुपरकता की सिद्धांत में एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इतिहासकार को विभिन्न स्रोतों की आलोचनात्मक समीक्षा करनी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होता है कि जानकारी के विभिन्न स्रोतों को ध्यान में रखते हुए एक व्यापक और सटीक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाए। 

विविध दृष्टिकोणों का समावेश: वस्तुपरकता का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह है कि विभिन्न दृष्टिकोणों और विचारधाराओं को ध्यान में रखा जाए। इतिहासकार को विभिन्न पक्षों को समझने और उनके दृष्टिकोणों को शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि एक समग्र और निष्पक्ष चित्र प्रस्तुत किया जा सके। 

परिवर्तनशीलता और साक्षात्कार: वस्तुपरकता की सिद्धांत यह भी स्वीकार करती है कि इतिहास की व्याख्या समय के साथ बदल सकती है। नई जानकारी और अनुसंधान के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं की समझ में बदलाव सकता है। इसलिए, इतिहासकारों को नई जानकारी और साक्षात्कारों को शामिल करते हुए इतिहास की निरंतर समीक्षा और संशोधन की प्रक्रिया में संलग्न रहना चाहिए। 

इतिहास-लेखन में वस्तुपरकता की यह भूमिका ऐतिहासिक ज्ञान को सटीक और विश्वसनीय बनाती है। यह सुनिश्चित करती है कि पाठक इतिहास की घटनाओं और उनके परिणामों को एक निष्पक्ष दृष्टिकोण से समझ सके। वस्तुपरकता की सिद्धांत इतिहासकारों को एक सुसंगत, निष्पक्ष और विचारशील तरीके से ऐतिहासिक घटनाओं की प्रस्तुति में मदद करती है, जो समकालीन समाज को अतीत की सच्चाई से अवगत कराती है। 

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2. 'सूक्ष्म इतिहास' से आप क्या समझते हैं? इतिहास-लेखन की इस परम्परा से सम्बन्धित इतिहासकारों और उनके लेखन का वर्णन कीजिए। 

सूक्ष्म इतिहास’ (Microhistory) एक ऐतिहासिक अनुसंधान पद्धति है जो सामान्यतः बड़े और व्यापक ऐतिहासिक घटनाओं के बजाय, छोटे और विशिष्ट सामाजिक समूहों, व्यक्तियों या घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करती है। इस पद्धति का उद्देश्य विशेष रूप से छोटी-छोटी घटनाओं और स्थानीय संदर्भों के माध्यम से व्यापक ऐतिहासिक परिदृश्य को समझना और विस्तृत विश्लेषण के माध्यम से ऐतिहासिक प्रक्रिया को स्पष्ट करना है। सूक्ष्म इतिहास एक तरह से इतिहास लेखन का एक नया दृष्टिकोण है, जो आमतौर पर ऐतिहासिक अनुसंधान की मुख्यधारा से अलग है, और यह व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक और स्थानीय परिप्रेक्ष्य को प्रमुखता देता है। 

सूक्ष्म इतिहास की विशेषताएँ: 

फोकस पर ध्यान: सूक्ष्म इतिहास छोटे लेकिन महत्वपूर्ण घटनाओं, व्यक्तियों या समूहों पर ध्यान केंद्रित करता है। यह ऐतिहासिक प्रक्रिया के व्यापक ढांचे में इन छोटी घटनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है। 

गहन विश्लेषण: सूक्ष्म इतिहास का लक्ष्य एक विशेष विषय पर गहन और विस्तार से विश्लेषण करना होता है। यह विश्लेषण इस उद्देश्य से किया जाता है कि कैसे यह विशेष घटना या व्यक्ति बड़े ऐतिहासिक प्रवृत्तियों और सामाजिक परिवर्तनों को प्रभावित करता है। 

स्थानीय संदर्भ: सूक्ष्म इतिहास स्थानीय संदर्भों और विशिष्ट सामाजिक समूहों पर ध्यान केंद्रित करता है। यह स्थानीय अनुभवों और घटनाओं के माध्यम से व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने की कोशिश करता है। 

व्यक्तिगत अनुभव: सूक्ष्म इतिहास व्यक्तिगत अनुभवों, सामाजिक परिस्थितियों और स्थानीय घटनाओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखता है, जिससे यह समझा जा सके कि कैसे ये अनुभव बड़े ऐतिहासिक बदलावों से जुड़े हैं। 

सूक्ष्म इतिहास के प्रमुख इतिहासकार और उनके लेखन: 

कार्लो गिन्सबर्ग (Carlo Ginzburg): 

लेखक और कार्य: गिन्सबर्ग सूक्ष्म इतिहास के प्रमुख आचार्यों में से एक माने जाते हैं। उनकी प्रमुख कृति "The Cheese and the Worms: The Cosmos of a Sixteenth-Century Miller" (1980) है। इस पुस्तक में गिन्सबर्ग ने 16वीं सदी के एक मिलर, मेनिकोरो डि बोनारो के जीवन का गहन विश्लेषण किया है। यह अध्ययन छोटे और स्थानीय विवरणों के माध्यम से उस समय की सामाजिक और धार्मिक सोच को समझाने की कोशिश करता है। 

विधि और दृष्टिकोण: गिन्सबर्ग का काम सूक्ष्म इतिहास की विधियों का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें उन्होंने छोटे स्थानीय विवरणों और दस्तावेज़ों के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों का विश्लेषण किया है। 

लुइजी गुट्टोसो (Luigi Guttuso): 

लेखक और कार्य: गुट्टोसो की कृतियाँ, जैसे "The Secret History of the Jesuits" (1967), सूक्ष्म इतिहास की पद्धति के अंतर्गत आती हैं। इस पुस्तक में उन्होंने जेसीट्स के आदेश और उनके प्रभाव को एक विशेष ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। 

विधि और दृष्टिकोण: गुट्टोसो ने व्यक्तिगत और सामाजिक संदर्भों के माध्यम से बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं के प्रभावों का विश्लेषण किया है, जो सूक्ष्म इतिहास की विशेषताओं को दर्शाता है। 

पैट्रिक ब्यूकनन (Patrick Boucheron): 

लेखक और कार्य: ब्यूकनन की कृतियाँ, जैसे "The Hidden History of the French Revolution" (2008), सूक्ष्म इतिहास के दृष्टिकोण से फ्रांसीसी क्रांति का विश्लेषण करती हैं। उन्होंने क्रांति के स्थानीय और व्यक्तिगत पहलुओं को सामने लाया है। 

विधि और दृष्टिकोण: ब्यूकनन ने फ्रांसीसी क्रांति की विशाल और जटिल घटना को छोटे और व्यक्तिगत विवरणों के माध्यम से समझाने की कोशिश की है। 

सूक्ष्म इतिहास की महत्वता: 

विविध दृष्टिकोण: सूक्ष्म इतिहास विभिन्न दृष्टिकोणों को सामने लाने की क्षमता रखता है, जो पारंपरिक ऐतिहासिक अनुसंधान में अक्सर छूट जाते हैं। यह छोटी घटनाओं और स्थानीय अनुभवों के माध्यम से बड़े ऐतिहासिक परिदृश्य को समझने में मदद करता है। 

नवीनता और विस्तार: सूक्ष्म इतिहास ऐतिहासिक अनुसंधान में नवीनता और विस्तार प्रदान करता है। यह केवल बड़े ऐतिहासिक घटनाओं पर ध्यान केंद्रित नहीं करता बल्कि छोटे विवरणों और स्थानीय संदर्भों को भी महत्वपूर्ण मानता है। 

व्यक्तिगत अनुभव: सूक्ष्म इतिहास व्यक्तिगत अनुभवों और स्थानीय घटनाओं को महत्व देता है, जिससे यह समझा जा सकता है कि कैसे ये व्यक्तिगत अनुभव बड़े सामाजिक और ऐतिहासिक बदलावों से जुड़े हैं। 

सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य: सूक्ष्म इतिहास सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को प्रमुखता देता है, जो ऐतिहासिक घटनाओं के गहरे और विविध आयामों को समझने में मदद करता है। 

सूक्ष्म इतिहास एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अनुसंधान विधि है जो छोटे और विशिष्ट घटनाओं के माध्यम से बड़े ऐतिहासिक परिदृश्य को समझने की कोशिश करती है। इसके इतिहासकारों ने इस पद्धति के माध्यम से ऐतिहासिक विश्लेषण की एक नई दिशा प्रदान की है, जो व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टिकोण को महत्व देती है। 

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भाग- 

6. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम में मार्क्सवादी इतिहास-लेखन पर एक टिप्पणी लिखिए। 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम में मार्क्सवादी इतिहास-लेखन एक महत्वपूर्ण और व्यापक बदलाव का संकेत था, जिसने ऐतिहासिक अनुसंधान और विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला। यह समय एक नए ऐतिहासिक दृष्टिकोण और सामाजिक विश्लेषण की ओर बढ़ने का था, जिसमें मार्क्सवादी सिद्धांतों ने प्रमुख भूमिका निभाई। इस अवधि में, मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने पश्चिमी दुनिया में ऐतिहासिक अनुसंधान की पारंपरिक विधियों और मान्यताओं को चुनौती दी और एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जो सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक बदलावों के विश्लेषण पर केंद्रित था। 

मार्क्सवादी इतिहास-लेखन: मूलभूत सिद्धांत और दृष्टिकोण 

मार्क्सवादी इतिहास-लेखन का आधारकार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के सिद्धांतों पर है, जो ऐतिहासिक भौतिकवाद पर आधारित हैं। इसके अनुसार, समाज का विकास आर्थिक और सामाजिक संघर्षों के परिणामस्वरूप होता है, और ऐतिहासिक प्रक्रिया की समझ के लिए इसे महत्वपूर्ण माना जाता है। मार्क्सवादी इतिहासकारों का मानना है कि ऐतिहासिक घटनाएँ और प्रक्रियाएँ वर्ग संघर्ष और आर्थिक विकास के परिणाम हैं। 

ऐतिहासिक भौतिकवाद: मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार, इतिहास की मुख्य धारा आर्थिक और भौतिक स्थितियों द्वारा निर्धारित होती है। यह दृष्टिकोण मानता है कि सामाजिक संरचनाएँ और इतिहास की दिशा आर्थिक आधारभूत संरचनाओं और उनके साथ जुड़ी सामाजिक प्रवृत्तियों द्वारा प्रभावित होती हैं। 

वर्ग संघर्ष: मार्क्सवादी इतिहास-लेखन में वर्ग संघर्ष को केंद्रीय भूमिका दी जाती है। इसका कहना है कि समाज की ऐतिहासिक विकास यात्रा मुख्यतः आर्थिक वर्गों के बीच संघर्ष और संघर्ष के परिणामस्वरूप होती है। 

वास्तविकता का विश्लेषण: मार्क्सवादी इतिहासकार वास्तविकता के विश्लेषण के लिए ऐतिहासिक सामग्री का गहन और आलोचनात्मक अध्ययन करते हैं। उनका उद्देश्य यह है कि वे ऐतिहासिक घटनाओं को वर्ग संघर्ष और आर्थिक विकास के संदर्भ में समझ सकें। 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम में मार्क्सवादी इतिहास-लेखन 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, पश्चिमी दुनिया में मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने ऐतिहासिक अनुसंधान की पारंपरिक विधियों को चुनौती दी और एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। इस अवधि में, कई प्रमुख इतिहासकार और विचारक मार्क्सवादी दृष्टिकोण को अपनाने लगे और इसके माध्यम से ऐतिहासिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने लगे। 

आधुनिक मार्क्सवादी इतिहासकार: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, पश्चिमी दुनिया में कई प्रमुख मार्क्सवादी इतिहासकार उभरे जिन्होंने इतिहास लेखन में मार्क्सवादी सिद्धांतों को अपनाया। इनमें से कुछ प्रमुख नामों में . पी. थॉम्पसन (E. P. Thompson), एरिक होब्सबॉम (Eric Hobsbawm), और क्रिस्टोफर हिल (Christopher Hill) शामिल हैं। 

. पी. थॉम्पसन (E. P. Thompson): थॉम्पसन का काम "The Making of the English Working Class" (1963) ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से वर्ग संघर्ष और श्रमिक वर्ग के विकास का विश्लेषण किया। उनके काम ने ब्रिटिश श्रमिक वर्ग के सामाजिक और राजनीतिक विकास को महत्वपूर्णता दी और ऐतिहासिक भौतिकवाद की सिद्धांत को नए ढंग से प्रस्तुत किया। 

एरिक होब्सबॉम (Eric Hobsbawm): होब्सबॉम का काम "The Age of Revolution," "The Age of Capital," और "The Age of Empire" (1980-1987) ने 19वीं और 20वीं सदी की सामाजिक और आर्थिक इतिहास की एक मार्क्सवादी दृष्टि प्रस्तुत की। उन्होंने औद्योगिक क्रांति, पूंजीवाद, और साम्राज्यवाद के प्रभावों का विश्लेषण किया और इन घटनाओं के सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को प्रमुखता दी। 

क्रिस्टोफर हिल (Christopher Hill): हिल का काम "The World Turned Upside Down" (1972) ने इंग्लैंड की सिविल वॉर और पूरितान आंदोलन के मार्क्सवादी दृष्टिकोण से विश्लेषण किया। उन्होंने इस काल के सामाजिक और राजनीतिक बदलावों की मार्क्सवादी समझ को प्रस्तुत किया और वर्ग संघर्ष के प्रभाव को स्पष्ट किया। 

मार्क्सवादी इतिहास-लेखन की विशेषताएँ: 

सामाजिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य: मार्क्सवादी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक घटनाओं को सामाजिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में समझा। उनका ध्यान केवल राजनीतिक घटनाओं पर नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं पर भी था, जो ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। 

वर्ग संघर्ष और आर्थिक विकास: मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने वर्ग संघर्ष और आर्थिक विकास को ऐतिहासिक घटनाओं की समझ का केंद्र बनाया। यह दृष्टिकोण मानता है कि ऐतिहासिक बदलाव मुख्यतः वर्ग संघर्ष और आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप होते हैं। 

वास्तविकता की आलोचना: मार्क्सवादी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं की आलोचनात्मक समीक्षा की। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि ऐतिहासिक विश्लेषण में किसी भी प्रकार का पूर्वाग्रह और असत्यता शामिल हो, और ऐतिहासिक वास्तविकता को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाए। 

मार्क्सवादी इतिहास-लेखन की चुनौतियाँ: 

पारंपरिक दृष्टिकोण से टकराव: मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने पारंपरिक ऐतिहासिक दृष्टिकोणों को चुनौती दी, जो कई इतिहासकारों और शोधकर्ताओं द्वारा अस्वीकार किए गए। इसके परिणामस्वरूप, इस पद्धति को आलोचनाओं और विवादों का सामना करना पड़ा। 

वर्ग संघर्ष की सीमाएँ: मार्क्सवादी दृष्टिकोण परिप्रेक्ष्य केवल वर्ग संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करता है, जो कभी-कभी अन्य सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों को नजरअंदाज करता है। यह सीमाएँ ऐतिहासिक विश्लेषण में विविधता की कमी का कारण बन सकती हैं। 

आर्थिक determinism: मार्क्सवादी सिद्धांतों की आलोचना की जाती है कि वे इतिहास की सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को केवल आर्थिक कारकों से निर्धारित मानते हैं, जिससे अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी हो सकती है। 

निष्कर्ष 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम में मार्क्सवादी इतिहास-लेखन ने ऐतिहासिक अनुसंधान में एक महत्वपूर्ण बदलाव की ओर इशारा किया। इस पद्धति ने ऐतिहासिक घटनाओं और प्रक्रियाओं के सामाजिक, आर्थिक, और वर्ग संघर्ष के दृष्टिकोण को प्रमुखता दी और पारंपरिक ऐतिहासिक विधियों को चुनौती दी। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने ऐतिहासिक विश्लेषण की नई दिशा प्रदान की, जिसमें आर्थिक और सामाजिक कारकों को केंद्रीय महत्व दिया गया। हालांकि, इस पद्धति को विभिन्न आलोचनाओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन इसका योगदान ऐतिहासिक अनुसंधान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रहा है। 

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7. भारत में उपनिवेशवादी इतिहास लेखन की तुलना राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन से कीजिए। 

भारत में उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन दो विपरीत दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीय इतिहास को समझने और प्रस्तुत करने के विभिन्न तरीकों को दर्शाते हैं। ये दोनों दृष्टिकोण ऐतिहासिक घटनाओं और प्रक्रियाओं को विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से देखने का प्रयास करते हैं, और इनके प्रभाव भारतीय ऐतिहासिक सोच और समझ पर गहरा प्रभाव डालते हैं। 

उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन 

उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन वह दृष्टिकोण है जिसे ब्रिटिश उपनिवेशकाल के दौरान यूरोपीय इतिहासकारों और विद्वानों द्वारा अपनाया गया। इस दृष्टिकोण की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं: 

औपनिवेशिक दृष्टिकोण: उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने भारतीय समाज, संस्कृति, और इतिहास को यूरोपीय मानकों और विचारधाराओं के संदर्भ में प्रस्तुत किया। भारतीय समाज को प्रायः पिछड़ा और असंस्कारित के रूप में दर्शाया गया, जबकि ब्रिटिश उपनिवेशवाद को एक उन्नत और सभ्यतापरक प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया गया। 

सांस्कृतिक श्रेष्ठता: उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन में यूरोपीय संस्कृति और सभ्यता को श्रेष्ठ माना गया। भारतीय संस्कृति की आलोचना की गई और इसे यूरोपीय मानकों के अनुसार पिछड़ा बताया गया। यह दृष्टिकोण भारतीय समाज की विविधता और उसकी सकारात्मक विशेषताओं को नजरअंदाज करता है। 

इतिहास का आधिकारिककरण: ब्रिटिश उपनिवेशकाल के दौरान, इतिहास को औपनिवेशिक हितों के अनुरूप ढाला गया। ब्रिटिश शासकों ने इतिहास को अपने नियंत्रण में रखा और उसे इस तरह प्रस्तुत किया कि यह ब्रिटिश शासन के योगदान और उपनिवेशीय उद्देश्य को उचित ठहराए। 

सामाजिक और आर्थिक सुधार: उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने यह तर्क किया कि ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में सुधार और प्रगति की। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और पिछड़ेपन को उजागर किया, जबकि यह अनदेखा किया कि उपनिवेशीय नीतियों ने भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया। 

राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन 

राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और स्वदेशी पहचान की भावना को प्रोत्साहित करता है। इसके कुछ प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं: 

स्वदेशी दृष्टिकोण: राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारतीय समाज और संस्कृति की स्वदेशी दृष्टि से व्याख्या की। उन्होंने भारतीय संस्कृति की समृद्धि और विविधता को उजागर किया और उपनिवेशवाद के प्रभावों का विरोध किया। 

स्वतंत्रता संघर्ष का महत्त्व: राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय आंदोलन को प्रमुख स्थान दिया। इसमें स्वतंत्रता सेनानियों, सामाजिक सुधारकों, और स्वतंत्रता संग्राम के विभिन्न आंदोलनों को महत्वपूर्ण माना गया। 

सांस्कृतिक पुनरुद्धार: राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारतीय सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं का पुनरुद्धार किया। उन्होंने भारतीय संस्कृति की गौरवपूर्ण परंपराओं और धार्मिक-आध्यात्मिक मान्यताओं को सम्मानित किया और उपनिवेशवाद के दौरान उनकी उपेक्षा की आलोचना की। 

सामाजिक न्याय और सुधार: राष्ट्रवादी दृष्टिकोण ने भारतीय समाज में सामाजिक न्याय और सुधार की आवश्यकता को पहचानते हुए, उपनिवेशवाद के समय में सामाजिक कुरीतियों और अन्याय का विरोध किया। इसमें जातिवाद, भेदभाव, और अन्य सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण किया गया। 

उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन की तुलना 

दृष्टिकोण और उद्देश्य: उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज और संस्कृति को यूरोपीय मानकों से परखना था, और इसे उपनिवेशवाद के औचित्य को साबित करने के लिए उपयोग किया गया। इसके विपरीत, राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन का उद्देश्य भारतीय समाज की स्वदेशी पहचान और स्वतंत्रता की भावना को पुनर्जीवित करना था। इसमें भारतीय संस्कृति और स्वतंत्रता संघर्ष को प्रमुखता दी गई। 

सांस्कृतिक मूल्यांकन: उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने भारतीय संस्कृति को पिछड़ा और असंस्कृत के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भारतीय संस्कृति की समृद्धि और महत्व को उजागर किया। राष्ट्रवादी दृष्टिकोण ने भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और पुनरुद्धार को प्राथमिकता दी। 

सामाजिक दृष्टिकोण: उपनिवेशवादी दृष्टिकोण ने भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और पिछड़ेपन को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया, जबकि राष्ट्रवादी दृष्टिकोण ने सामाजिक सुधार और न्याय की आवश्यकता को समझते हुए भारतीय समाज की समस्याओं और संघर्षों का एक स्वतंत्र दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। 

इतिहास की भूमिका: उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन ने इतिहास को ब्रिटिश शासकों के दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया और इसे उपनिवेशीय हितों के अनुरूप ढाला। राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन ने इतिहास को भारतीय पहचान और स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में प्रस्तुत किया, और इसमें ऐतिहासिक सच्चाइयों और राष्ट्रीय गर्व को प्रमुखता दी। 

निष्कर्ष 

भारत में उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन की तुलना यह स्पष्ट करती है कि इतिहास लेखन केवल तथ्यात्मक प्रस्तुति नहीं है, बल्कि यह विभिन्न दृष्टिकोणों और वैयक्तिकताओं के माध्यम से संचालित होता है। उपनिवेशवादी इतिहास-लेखन ने भारतीय समाज को पश्चिमी दृष्टिकोण से देखा और उसे औपनिवेशिक हितों के अनुरूप ढाला, जबकि राष्ट्रवादी इतिहास-लेखन ने भारतीय समाज की स्वदेशी पहचान और स्वतंत्रता की भावना को प्रमुखता दी। इन दोनों दृष्टिकोणों के बीच की तुलना हमें यह समझने में मदद करती है कि इतिहास लेखन किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रभावों से प्रभावित होता है और यह कैसे विभिन्न दृष्टिकोणों के माध्यम से इतिहास की प्रस्तुति को बदल सकता है। 

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