100% Free IGNOU MHI-02 Solved Assignment 2024-25 Pdf / hardcopy In Hindi

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भाग- 

1.मनुष्य और समाज पर ज्ञानादेय के प्रमुख विचार क्या है? ज्ञानादेय के विरुद्ध रोमांटिक चिंतको के तर्कों की व्याख्या कीजिए। 

ज्ञानादेय (Epistemology) का अध्ययन मानवता और समाज के ज्ञान की प्रकृति, स्त्रोत, और सीमा की समझ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह विचार करता है कि हम क्या जानते हैं, कैसे जानते हैं, और हमारे ज्ञान की मान्यता और विश्वसनीयता की सीमा क्या है। ज्ञानादेय के प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं: 

ज्ञान का परिभाषा: ज्ञानादेय का सबसे बुनियादी सवाल यह है कि ज्ञान क्या है? सामान्यत: ज्ञान को "सच्चा, उचित, और उचित विश्वास" के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसे सच्चाई, विश्वास, और साक्षात्कार के सामंजस्य के रूप में देखा जाता है। 

ज्ञान के स्त्रोत: ज्ञानादेय के अंतर्गत यह समझा जाता है कि हम ज्ञान को कैसे प्राप्त करते हैं। मुख्य स्त्रोतों में अनुभव (Empiricism), तर्क (Rationalism), और विश्वास (Faith) शामिल हैं। अनुभववादी दृष्टिकोण के अनुसार, ज्ञान का स्त्रोत संवेदनाओं और अनुभवों पर आधारित होता है। तर्कवादी दृष्टिकोण मानता है कि ज्ञान तर्क और तात्त्विक सोच से उत्पन्न होता है। विश्वासवादी दृष्टिकोण धार्मिक या आत्मिक विश्वासों को ज्ञान का स्त्रोत मानता है। 

ज्ञान की सच्चाई और यथार्थता: ज्ञानादेय का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हम यह कैसे पहचानते हैं कि कुछ ज्ञान सच्चा है या नहीं। सच्चाई के सिद्धांतों में संगतता (Coherence Theory), साक्षात्कार (Correspondence Theory), और प्रायोगिकता (Pragmatic Theory) शामिल हैं। संगतता सिद्धांत कहता है कि ज्ञान की सच्चाई उसके अन्य विश्वासों के साथ संगतता पर निर्भर होती है। साक्षात्कार सिद्धांत के अनुसार, ज्ञान की सच्चाई वास्तविकता के साथ मेल खाती है। प्रायोगिकता सिद्धांत का कहना है कि ज्ञान का मूल्य उसकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। 

ज्ञान की सीमाएँ: ज्ञानादेय यह भी अध्ययन करता है कि हमारे ज्ञान की सीमाएँ क्या हैं। इसमें संज्ञानात्मक सीमाएँ, भाषाई सीमाएँ, और सांस्कृतिक सीमाएँ शामिल हैं। संज्ञानात्मक सीमाएँ हमारे सोचने और समझने की क्षमता से जुड़ी होती हैं। भाषाई सीमाएँ उस भाषा की सीमाओं से संबंधित होती हैं जिसके माध्यम से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। सांस्कृतिक सीमाएँ हमारे समाज और संस्कृति द्वारा ज्ञान की समझ पर आधारित होती हैं। 

संबंधितता और निष्पक्षता: ज्ञानादेय में यह भी चर्चा होती है कि ज्ञान निष्पक्ष और सुसंगत होना चाहिए। ज्ञान की निष्पक्षता का तात्पर्य है कि यह व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए। 

ज्ञानादेय के विरुद्ध रोमांटिक चिंतकों के तर्क 

रोमांटिक चिंतक ज्ञानादेय के पारंपरिक दृष्टिकोणों की आलोचना करते हैं और कई तर्क प्रस्तुत करते हैं जो ज्ञान के पारंपरिक स्वरूप को चुनौती देते हैं। रोमांटिक चिंतकों के तर्क निम्नलिखित हैं: 

अनुभव का महत्व: रोमांटिक चिंतक अनुभव को ज्ञान का मुख्य स्त्रोत मानते हैं और मानते हैं कि केवल तर्क और औपचारिक ज्ञान से वास्तविकता की पूरी समझ नहीं हो सकती। उनका मानना है कि व्यक्तिगत अनुभव और भावनाएँ ज्ञान की गहराई को समझने में सहायक होती हैं। 

स्वतंत्रता और व्यक्तिगत दृष्टिकोण: रोमांटिक चिंतकों के अनुसार, ज्ञान केवल तर्क और साक्षात्कार पर निर्भर नहीं हो सकता क्योंकि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत दृष्टिकोणों को नजरअंदाज करता है। वे मानते हैं कि व्यक्तिगत अनुभव और अंतर्दृष्टि ज्ञान के महत्वपूर्ण हिस्से होते हैं जो पारंपरिक ज्ञानादेय में अनदेखे रह जाते हैं। 

संवेदनात्मकता और प्रकृति: रोमांटिक चिंतकों का कहना है कि ज्ञान की समझ केवल तर्क और संवेदनाओं से नहीं होती, बल्कि यह प्रकृति और संवेदनात्मकता के साथ घनिष्ठ संबंध पर भी निर्भर करती है। वे मानते हैं कि ज्ञान की गहराई को समझने के लिए हमें प्राकृतिक और संवेदनात्मक पहलुओं को भी समझना होगा। 

समाज और संस्कृति की भूमिका: रोमांटिक चिंतक यह भी तर्क करते हैं कि ज्ञान समाज और संस्कृति के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकता। वे मानते हैं कि पारंपरिक ज्ञानादेय के दृष्टिकोण में समाज और संस्कृति की भूमिका को पूरी तरह से मान्यता नहीं दी जाती है, जो कि ज्ञान की समझ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

सचाई की सापेक्षता: रोमांटिक चिंतक यह भी मानते हैं कि सचाई सापेक्ष होती है और विभिन्न सांस्कृतिक और व्यक्तिगत दृष्टिकोणों के आधार पर भिन्न हो सकती है। पारंपरिक ज्ञानादेय के सच्चाई के सिद्धांत अक्सर एकल दृष्टिकोण को मानते हैं, जो विभिन्न सांस्कृतिक और व्यक्तिगत परिप्रेक्ष्य को अनदेखा कर सकते हैं। 

इन तर्कों के माध्यम से, रोमांटिक चिंतक पारंपरिक ज्ञानादेय के दृष्टिकोणों को चुनौती देते हैं और ज्ञान की अधिक विविध, व्यक्तिगत और सांस्कृतिक समझ की आवश्यकता की बात करते हैं। उनके दृष्टिकोण से, ज्ञान केवल तर्क और औपचारिकता पर निर्भर नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे व्यक्तिगत अनुभव, संवेदनात्मकता और सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों को भी शामिल करना चाहिए। 

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2. राज्य के विभिन्न सिद्धांतों पर चर्चा कीजिए। 

राज्य एक ऐसा संस्थान है जो राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए बनाया गया है। इसके निर्माण और कार्यप्रणाली पर विभिन्न सिद्धांत और दृष्टिकोण होते हैं, जो इसके प्रकृति, उद्देश्य, और कार्यों को समझाने में सहायक होते हैं। राज्य के विभिन्न सिद्धांतों पर चर्चा निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है: 

1. सामाजिक अनुबंध सिद्धांत (Social Contract Theory) 

परिभाषा और इतिहास: सामाजिक अनुबंध सिद्धांत यह मानता है कि राज्य की उत्पत्ति और वैधता एक अनुबंध के माध्यम से हुई है जो व्यक्तियों के बीच सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए किया गया था। यह सिद्धांत थॉमस होब्स, जॉन लॉक, और जीन-जैक रूसो जैसे विचारकों द्वारा विकसित किया गया था। 

थॉमस होब्स का दृष्टिकोण: थॉमस होब्स ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "लेवीथन" में यह कहा कि मनुष्य की प्राकृतिक स्थिति संघर्ष और अशांति से भरी होती है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए, लोगों ने एक सामाजिक अनुबंध पर सहमति जताई, जिसमें उन्होंने अपने कुछ अधिकारों को राज्य को सौंप दिया ताकि सुरक्षा और शांति प्राप्त की जा सके। होब्स के अनुसार, यह अनुबंध एक निरंकुश शासक के तहत एक मजबूत और केंद्रीकृत राज्य की आवश्यकता को दर्शाता है। 

जॉन लॉक का दृष्टिकोण: जॉन लॉक ने सामाजिक अनुबंध के सिद्धांत को कुछ हद तक बदलते हुए कहा कि लोगों ने अपनी स्वतंत्रता और संपत्ति की सुरक्षा के लिए एक राज्य का गठन किया। उनके अनुसार, राज्य का प्राथमिक उद्देश्य व्यक्तियों के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करना है। यदि राज्य इन अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो लोग उसे बदलने या समाप्त करने का अधिकार रखते हैं। लॉक के विचार लोकतंत्र और संविधानिक सरकारों के विकास में महत्वपूर्ण रहे हैं। 

जीन-जैक रूसो का दृष्टिकोण: रूसो ने अपनी पुस्तक "सामाजिक अनुबंध" में राज्य के निर्माण की प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से समझाया। उनके अनुसार, राज्य का निर्माण 'सामाजिक अनुबंध' के माध्यम से एक सामान्य इच्छा (General Will) के आधार पर होता है, जिसमें सभी नागरिकों की भागीदारी और सहमति होती है। रूसो के अनुसार, सही राज्य वह है जो लोगों की सामूहिक इच्छा के अनुरूप कार्य करता है और लोगों की स्वतंत्रता और समानता को सुनिश्चित करता है। 

2. मार्क्सवादी सिद्धांत (Marxist Theory) 

परिभाषा और इतिहास: मार्क्सवादी सिद्धांत ने राज्य को वर्ग संघर्ष का परिणाम माना है। कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स ने इस सिद्धांत को विकसित किया। इसके अनुसार, राज्य एक ऐसा उपकरण होता है जो एक वर्ग के हितों की रक्षा करता है और दूसरों पर दबाव डालता है। 

वर्ग संघर्ष और राज्य: मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, राज्य का निर्माण और उसका अस्तित्व वर्ग संघर्ष से जुड़ा हुआ है। पूंजीवादी समाज में, राज्य पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करता है और श्रमिक वर्ग के शोषण को बनाए रखता है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार, जब समाज वर्गों में बंट जाता है और श्रमिक वर्गों का शोषण होता है, तो राज्य ऐसा संगठन होता है जो शोषण और असमानता को बनाए रखने के लिए काम करता है। 

राज्य का अंत और समाजवाद: मार्क्सवादी सिद्धांत में यह भी कहा गया है कि भविष्य में एक ऐसा समाज आएगा जिसमें वर्ग संघर्ष समाप्त हो जाएगा और राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। इसे समाजवाद और कम्युनिज़्म की दिशा में एक प्रगतिशील कदम माना गया है। समाजवादी समाज में, राज्य का अंत होगा और संसाधनों और शक्ति का समान वितरण होगा। 

3. लीगलिस्ट सिद्धांत (Legalist Theory) 

परिभाषा और इतिहास: लीगलिस्ट सिद्धांत राज्य को कानून और व्यवस्था के रखवाले के रूप में देखता है। यह सिद्धांत कन्फ्यूशियस और लीगलिस्ट विचारकों द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिनमें से प्रमुख हान फेज़ी (Han Fei) थे। 

कानून और शासन: लीगलिस्ट सिद्धांत के अनुसार, राज्य की वैधता और स्थिरता कानून और सख्त शासन के आधार पर होती है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, राज्य को सशक्त और केंद्रीकृत होना चाहिए, और शासन के माध्यम से कानून और आदेश को लागू करना चाहिए। कानून की स्पष्टता और कठोरता समाज में अनुशासन और स्थिरता बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

पारंपरिक समाजों में लीगलिस्ट सिद्धांत: लीगलिस्ट सिद्धांत पारंपरिक समाजों में, विशेषकर चीनी साम्राज्य में, प्रभावशाली रहा। इसमें राज्य की शक्ति और नियंत्रण को कानूनी ढांचे के माध्यम से वैध और स्थापित किया गया। कानून को व्यापक और कठोर बनाकर समाज की असामान्यता और भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। 

4. प्राकृतिक कानून सिद्धांत (Natural Law Theory) 

परिभाषा और इतिहास: प्राकृतिक कानून सिद्धांत के अनुसार, राज्य और कानून का आधार प्राकृतिक या शाश्वत नियमों पर होता है, जो मानवता के नैतिक और नैतिक अधिकारों की सुरक्षा करते हैं। यह सिद्धांत अरस्तू, थॉमस एक्विनास और अन्य विचारकों द्वारा विकसित किया गया था। 

नैतिकता और कानून: प्राकृतिक कानून सिद्धांत के अनुसार, राज्य का उद्देश्य नैतिकता और न्याय के मूलभूत सिद्धांतों को लागू करना होता है। प्राकृतिक कानून के अनुसार, कुछ अधिकार और कर्तव्य स्वाभाविक रूप से सभी मनुष्यों के पास होते हैं, और राज्य का कार्य इन अधिकारों की रक्षा करना होता है। 

प्राकृतिक कानून का विकास: प्राकृतिक कानून सिद्धांत ने कानून और नैतिकता के बीच संबंध को स्पष्ट करने का प्रयास किया। यह मानता है कि कानून केवल लोगों की इच्छाओं का परिणाम नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे शाश्वत नैतिक सिद्धांतों के आधार पर होना चाहिए। 

5. लिबरल सिद्धांत (Liberal Theory) 

परिभाषा और इतिहास: लिबरल सिद्धांत ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को राज्य के निर्माण और संचालन की आधारशिला माना है। यह सिद्धांत जॉन लॉक, जेम्स मैडिसन और अन्य विचारकों द्वारा विकसित किया गया है। 

व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकार: लिबरल सिद्धांत के अनुसार, राज्य का मुख्य उद्देश्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता और अधिकारों की सुरक्षा करना है। यह सिद्धांत यह मानता है कि व्यक्तियों के पास स्वायत्तता और व्यक्तिगत अधिकार होते हैं, और राज्य का कार्य इन अधिकारों की रक्षा करना होता है। 

लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व: लिबरल सिद्धांत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था और प्रतिनिधित्व के महत्व को भी रेखांकित किया। इसमें यह मान्यता है कि लोगों को अपनी सरकार के चुनाव में भाग लेना चाहिए और सरकार की नीतियों पर प्रभाव डालना चाहिए। यह सिद्धांत स्वतंत्रता, समानता, और न्याय को राज्य के प्रमुख उद्देश्यों के रूप में मानता है। 

6. अनार्किस्ट सिद्धांत (Anarchist Theory) 

परिभाषा और इतिहास: अनार्किस्ट सिद्धांत ने राज्य के अस्तित्व और उसके अधिकारों की वैधता पर सवाल उठाया है। यह सिद्धांत पीटर क्रॉपोटकिन, मिखाइल बकुनिन, और अन्य विचारकों द्वारा विकसित किया गया है। 

राज्य की आलोचना: अनार्किस्ट सिद्धांत के अनुसार, राज्य सत्ता और शक्ति का केंद्रीकरण होता है जो समाज में असमानता और शोषण को बढ़ावा देता है। अनार्किस्ट विचारकों का मानना है कि समाज को एक बिना राज्य के व्यवस्था में चलाना चाहिए, जहाँ लोग स्वायत्तता और समानता के आधार पर आपसी समझ और सहयोग से काम कर सकें। 

स्वायत्तता और स्व-प्रबंधन: अनार्किस्ट सिद्धांत स्वायत्तता और स्व-प्रबंधन की विचारधारा पर आधारित है। इसमें समाज की स्वायत्त इकाइयाँ और संगठनों के माध्यम से स्व-प्रबंधन और सामाजिक समन्वय को प्रोत्साहित किया जाता है। 

7. सांस्कृतिक सिद्धांत (Cultural Theory) 

परिभाषा और इतिहास: सांस्कृतिक सिद्धांत यह मानता है कि राज्य और उसका विकास सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों से प्रभावित होते हैं। यह सिद्धांत विभिन्न सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं और ऐतिहासिक अनुभवों को ध्यान में रखता है। 

संस्कृति और राजनीति: सांस्कृतिक सिद्धांत के अनुसार, विभिन्न सांस्कृतिक मान्यताएँ और परंपराएँ राज्य के गठन और संचालन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं। राज्य के रूप और संरचना सांस्कृतिक संदर्भों और ऐतिहासिक परंपराओं के आधार पर बदल सकते हैं। 

विविधता और समावेशिता: सांस्कृतिक सिद्धांत में विविधता और समावेशिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसमें यह मान्यता है कि विभिन्न सांस्कृतिक समूहों और परंपराओं की विविधता को मान्यता दी जानी चाहिए और राज्य के निर्माण और संचालन में इन्हें शामिल किया जाना चाहिए। 

निष्कर्ष 

राज्य के विभिन्न सिद्धांत विभिन्न दृष्टिकोणों और विचारधाराओं पर आधारित होते हैं, जो इसके निर्माण, उद्देश्यों, और कार्यप्रणाली को समझाने में सहायक होते हैं। सामाजिक अनुबंध सिद्धांत, मार्क्सवादी सिद्धांत, लीगलिस्ट सिद्धांत, प्राकृतिक कानून सिद्धांत, लिबरल सिद्धांत, अनार्किस्ट सिद्धांत, और सांस्कृतिक सिद्धांत सभी अपने-अपने तरीके से राज्य की भूमिका और उसकी वैधता को समझाने की कोशिश करते हैं। ये सिद्धांत समाज के विविध पहलुओं को समझने और उसे व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

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3. नौकरशाहीकरण को परिभाषित कीजिए। 19वीं 20वीं सदी में राज्य के नौकरशाहीकरण का विश्लेषण कीजिए। 

नौकरशाहीकरण एक प्रशासनिक प्रक्रिया है जिसमें एक राज्य या संगठन के विभिन्न कार्यों और गतिविधियों को व्यवस्थित, नियमित और केंद्रीयकृत तरीके से प्रबंधित किया जाता है। इस प्रक्रिया में, नौकरशाही (Bureaucracy) की भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जो सरकारी कार्यों को सुचारू रूप से चलाने और कानूनों, नियमों, और नीतियों को लागू करने का कार्य करती है। 

नौकरशाही की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है: 

संरचनात्मक संगठन: नौकरशाही एक संरचनात्मक संगठन है जिसमें पदानुक्रम (Hierarchy) के अनुसार अधिकार और जिम्मेदारियाँ बांटी जाती हैं। इसमें विभिन्न स्तरों पर अधिकार और जिम्मेदारी का स्पष्ट वितरण होता है। 

नियम और प्रक्रियाएँ: नौकरशाही में कामकाज और निर्णय लेने की प्रक्रियाएँ मानकीकृत और नियामक होती हैं। इसमें नियम, दिशा-निर्देश, और प्रक्रियाएँ होती हैं जो कार्यों को संगठित और नियंत्रित करती हैं। 

पेशेवर प्रबंधन: नौकरशाही में प्रशासनिक कार्यों को पेशेवर तरीके से प्रबंधित किया जाता है। इसमें विशेषज्ञता और कुशलता की आवश्यकता होती है, और कर्मचारियों की नियुक्ति और पदोन्नति योग्यता के आधार पर होती है। 

अप्रत्यक्ष निर्णय प्रक्रिया: नौकरशाही में निर्णय प्रक्रिया अक्सर विस्तृत और औपचारिक होती है, जिसमें विभिन्न स्तरों पर विचार और अनुमोदन की आवश्यकता होती है। 

19वीं सदी में राज्य के नौकरशाहीकरण का विश्लेषण 

19वीं सदी में राज्य के नौकरशाहीकरण की प्रक्रिया कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं और सामाजिक बदलावों के कारण तेज हुई। इस समय में, विशेष रूप से पश्चिमी देशों में, नौकरशाहीकरण के कई महत्वपूर्ण पहलू उभरकर सामने आए: 

औद्योगिक क्रांति: 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति ने समाज और अर्थव्यवस्था में गहरे बदलाव किए। तेजी से औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने सरकारी प्रबंधन की जटिलता को बढ़ा दिया। इसके परिणामस्वरूप, विभिन्न सरकारी विभागों और एजेंसियों की स्थापना हुई, जिनकी प्रशासनिक कार्यप्रणाली को सुव्यवस्थित और कुशल बनाना आवश्यक था। 

राजनीतिक और सामाजिक सुधार: 19वीं सदी में विभिन्न देशों में राजनीतिक और सामाजिक सुधारों की लहर चली। यूरोप और अमेरिका में सुधारवादी आंदोलन और जनतंत्र की दिशा में प्रयासों ने नौकरशाही को पेशेवर और जवाबदेह बनाने की आवश्यकता को उजागर किया। इस समय के दौरान, नागरिक सेवा में नियुक्तियों और पदोन्नति के लिए मेरिट (Merit) प्रणाली को अपनाया गया, जिससे भ्रष्टाचार और पक्षपात कम हुआ। 

उपनिवेशवाद और विस्तार: उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने भी राज्य की नौकरशाहीकरण को प्रभावित किया। उपनिवेशों को नियंत्रित करने के लिए एक केंद्रीकृत और व्यवस्थित प्रशासन की आवश्यकता महसूस की गई। विभिन्न उपनिवेशी शक्तियों ने उपनिवेशों में नौकरशाही की व्यवस्था स्थापित की, जो उनके शासन को सुचारू और प्रभावी बनाने में सहायक थी। 

वैज्ञानिक प्रबंधन और प्रशासनिक सिद्धांत: 19वीं सदी के अंत में और 20वीं सदी की शुरुआत में, वैज्ञानिक प्रबंधन के सिद्धांतों ने प्रशासनिक प्रथाओं में सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। फ्रेडरिक टेलर और हेनरी फोर्ड जैसे विचारकों ने औद्योगिक प्रबंधन में दक्षता और उत्पादकता बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाया। इन सिद्धांतों ने सरकारी नौकरशाही को भी प्रभावित किया, जिससे नौकरशाही की प्रक्रियाओं को अधिक व्यवस्थित और कुशल बनाया गया। 

20वीं सदी में राज्य के नौकरशाहीकरण का विश्लेषण 

20वीं सदी में, राज्य के नौकरशाहीकरण की प्रक्रिया ने कई महत्वपूर्ण मोड़ लिए और इसके विभिन्न पहलू उभरे: 

लोकतंत्र और सामाजिक कल्याण: 20वीं सदी में लोकतंत्र और सामाजिक कल्याण के सिद्धांतों का विकास हुआ। सरकारों ने सामाजिक सेवाओं की बेहतर वितरण और नागरिकों की भलाई के लिए व्यापक प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता महसूस की। इस समय के दौरान, राज्य ने शिक्षा, स्वास्थ्य, और कल्याणकारी योजनाओं के लिए विशाल नौकरशाही ढांचे की स्थापना की। यह प्रक्रिया सरकारी कार्यों को सुव्यवस्थित और नागरिकों के लिए अधिक प्रभावी बनाने के लिए की गई। 

संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ: 20वीं सदी के मध्य में, संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना ने भी राज्य के नौकरशाहीकरण को प्रभावित किया। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समन्वय की आवश्यकता ने विभिन्न देशों में अंतर्राष्ट्रीय मानकों और नियमों को अपनाने की प्रक्रिया को तेज किया। इससे राज्य की नौकरशाही में अंतर्राष्ट्रीय मानकों और प्रक्रियाओं को शामिल करने की दिशा में बदलाव आया। 

सूचना प्रौद्योगिकी का उदय: 20वीं सदी के अंतिम दशकों में, सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology) के उदय ने भी नौकरशाहीकरण को प्रभावित किया। कंप्यूटर और डिजिटल प्रौद्योगिकी ने सरकारी प्रक्रियाओं को स्वचालित और कुशल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। -गवर्नेंस (E-Governance) के विकास ने राज्य के प्रशासनिक कार्यों को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाया। 

ग्लोबलाइजेशन और आर्थिक सुधार: 20वीं सदी के अंत में ग्लोबलाइजेशन और आर्थिक सुधारों ने भी राज्य के नौकरशाहीकरण को प्रभावित किया। आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों ने सरकारी कंपनियों और संस्थाओं में प्रबंधन के तरीकों में बदलाव किया। इसके परिणामस्वरूप, सरकारी कार्यों और सेवाओं की अधिक औपचारिक और पेशेवर प्रबंधन की आवश्यकता महसूस की गई। 

प्रशासनिक सुधार और पुनर्गठन: 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में, कई देशों ने प्रशासनिक सुधार और पुनर्गठन की प्रक्रियाओं को अपनाया। इन सुधारों का उद्देश्य सरकारी नौकरशाही को अधिक प्रभावी, उत्तरदायी और लचीला बनाना था। इनमें सरकारी सेवाओं के प्रावधान में सुधार, भ्रष्टाचार को कम करने के प्रयास, और नागरिकों की भागीदारी को बढ़ाने के प्रयास शामिल थे। 

निष्कर्ष 

नौकरशाहीकरण एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक प्रक्रिया है जो राज्य और संगठनों की कार्यप्रणाली को व्यवस्थित और कुशल बनाती है। 19वीं और 20वीं सदी में, राज्य के नौकरशाहीकरण ने कई महत्वपूर्ण बदलावों और सुधारों का सामना किया। 19वीं सदी में औद्योगिक क्रांति, राजनीतिक सुधार, और उपनिवेशवाद ने नौकरशाही की संरचना और कार्यप्रणाली को प्रभावित किया। 20वीं सदी में, लोकतंत्र, सामाजिक कल्याण, सूचना प्रौद्योगिकी, ग्लोबलाइजेशन, और प्रशासनिक सुधारों ने राज्य के नौकरशाहीकरण को नया आकार और दिशा दी। इन बदलावों ने राज्य की नौकरशाही को अधिक प्रभावी, पारदर्शी, और उत्तरदायी बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया

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भाग- 

6. 1400-1800 के बीच प्रवसन के माध्यम से गैर-यूरोपीय दुनिया में यूरोप के विस्तार की व्याख्या कीजिए। 

1400-1800 के बीच, यूरोपीय देशों ने वैश्विक स्तर पर महत्वपूर्ण बदलाव किए, जो केवल उनके अपने महाद्वीप बल्कि गैर-यूरोपीय दुनिया में भी व्यापक प्रभाव डाले। इस अवधि के दौरान, यूरोपीय शक्तियों ने अपने साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी प्रयासों के माध्यम से एशिया, अफ्रीका, और अमेरिका में अपने प्रभाव का विस्तार किया। यह विस्तार समुद्री प्रवसन (Maritime Expansion) और उपनिवेशीकरण (Colonialism) के माध्यम से संभव हुआ। इस लेख में, हम इस विस्तरण की प्रमुख विशेषताओं, कारणों, और परिणामों का विश्लेषण करेंगे। 

समुद्री प्रवसन और उपनिवेशीकरण 

1. प्रारंभिक समुद्री अन्वेषण 

पोर्टुगाली अन्वेषण (15वीं सदी) 

हेनरी नेविगेटर: पुर्तगाल के प्रिंस हेनरी नेविगेटर ने 15वीं सदी के प्रारंभ में समुद्री अन्वेषण को प्रोत्साहित किया। उन्होंने पश्चिमी अफ्रीका के तट पर खोजी यात्राओं का आयोजन किया, जिसका उद्देश्य नई व्यापारिक मार्गों की खोज और स्वर्ण, हीरे, और अन्य संसाधनों की खोज थी। इन अभियानों ने पुर्तगाल को समुद्री शक्ति के रूप में स्थापित किया और उसके बाद के अन्वेषणों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 

वास्को गामा: 1498 में, वास्को गामा ने भारत के लिए समुद्री मार्ग खोजा, जिससे पुर्तगाल को एशिया के व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण मिला। इस खोज ने पुर्तगाल को भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी तट पर उपनिवेश स्थापित करने का अवसर प्रदान किया। 

स्पेनी अन्वेषण (15वीं-16वीं सदी) 

क्रिस्टोफर कोलंबस: 1492 में, क्रिस्टोफर कोलंबस ने नई दुनिया की खोज की, जो बाद में अमेरिका के रूप में ज्ञात हुआ। इस खोज ने यूरोपीय शक्तियों को पश्चिमी गोलार्द्ध में उपनिवेश स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। 

फर्डिनेंड मैगेलान: 1519-1522 के बीच, मैगेलान ने विश्व की पहली समुद्री यात्रा की, जिसने विश्व की गोलाई को प्रमाणित किया और एशिया और अमेरिका के बीच समुद्री मार्गों को स्पष्ट किया। 

2. उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया 

स्पेन और पुर्तगाल का उपनिवेशीकरण 

अमेरिका का उपनिवेशीकरण: स्पेन और पुर्तगाल ने अमेरिकी महाद्वीप में व्यापक उपनिवेश स्थापित किए। स्पेन ने मध्य और दक्षिण अमेरिका में अपनी उपनिवेशी शक्ति स्थापित की, जिसमें मेक्सिको, पेरू, और चिली शामिल थे। पुर्तगाल ने ब्राजील में उपनिवेश स्थापित किया। 

मिशनरी गतिविधियाँ: दोनों देशों ने स्थानीय जनजातियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के लिए मिशनरी गतिविधियाँ शुरू की। यह धर्मांतरण और सांस्कृतिक प्रभाव स्थानीय समाजों में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए। 

डच और ब्रिटिश उपनिवेशीकरण 

डच उपनिवेशीकरण: डचों ने 17वीं सदी में एशिया में महत्वपूर्ण उपनिवेश स्थापित किए, विशेषकर इंडोनेशिया और अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई द्वीपों में। उन्होंने व्यापारिक मोनॉपली स्थापित की और समुद्री मार्गों पर नियंत्रण प्राप्त किया। 

ब्रिटिश उपनिवेशीकरण: ब्रिटिश साम्राज्य ने 17वीं और 18वीं सदी में भारतीय उपमहाद्वीप और उत्तरी अमेरिका में प्रमुख उपनिवेश स्थापित किए। ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना ने भारतीय व्यापार और राजनीति पर ब्रिटिश नियंत्रण को सुदृढ़ किया। उत्तरी अमेरिका में, ब्रिटेन ने कई कॉलोनियों की स्थापना की, जो बाद में संयुक्त राज्य अमेरिका के रूप में स्वतंत्र हो गईं। 

3. आर्थिक और सामाजिक प्रभाव 

व्यापारिक प्रभाव 

सोने और चांदी का व्यापार: उपनिवेशों से प्राप्त सोना और चांदी ने यूरोप के आर्थिक संरचनाओं को मजबूत किया। विशेषकर, स्पेन ने दक्षिण अमेरिका से सोने और चांदी का बड़े पैमाने पर निर्यात किया, जिसने यूरोपीय वित्तीय प्रणाली को लाभान्वित किया। 

उपनिवेशी वस्त्र और वस्त्रों का व्यापार: उपनिवेशी देशों ने अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपनिवेशों से वस्त्र, मसाले, और अन्य उत्पादों का व्यापार किया। इस व्यापार ने यूरोप के औद्योगिक क्रांति को भी प्रेरित किया। 

सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव 

स्थानीय संस्कृतियों पर प्रभाव: उपनिवेशीकरण ने स्थानीय संस्कृतियों पर गहरा प्रभाव डाला। यूरोपीय शक्तियों ने अपने सांस्कृतिक, धार्मिक, और सामाजिक मानदंडों को स्थानीय समाजों में लागू किया। इसके परिणामस्वरूप, सांस्कृतिक संलयन और संघर्ष उत्पन्न हुए। 

सामाजिक असमानता: उपनिवेशों में सामाजिक असमानता और जातीय भेदभाव बढ़े। यूरोपीय उपनिवेशियों ने स्थानीय जनजातियों को उपनिवेशी सत्ता के तहत दबाया और श्रमिकों के रूप में उपयोग किया। 

निष्कर्ष 

1400-1800 के बीच प्रवसन और उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने गैर-यूरोपीय दुनिया में यूरोप के प्रभाव को व्यापक रूप से फैलाया। समुद्री अन्वेषण और उपनिवेशीकरण ने यूरोपीय शक्तियों को नए संसाधनों, व्यापारिक मार्गों, और सामरिक क्षेत्रों पर नियंत्रण प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया। इस विस्तार ने केवल यूरोपीय आर्थिक और राजनीतिक शक्ति को मजबूत किया, बल्कि वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन भी लाए। इस अवधि का अध्ययन यह दर्शाता है कि कैसे उपनिवेशीकरण ने वैश्विक इतिहास को आकार दिया और विभिन्न समाजों के बीच संबंधों को परिभाषित किया। 

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7. शीत युद्ध में नाभिकीय हथियारों की होड़ का वर्णन कीजिए। नाभिकीय प्रसार को नियंत्रित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों की जाँच कीजिए 

शीत युद्ध (Cold War) के दौरान, नाभिकीय हथियारों की होड़ (Nuclear Arms Race) एक प्रमुख वैश्विक संघर्ष का हिस्सा थी, जिसने केवल अमेरिका और सोवियत संघ के बीच तनाव को बढ़ाया बल्कि पूरी दुनिया की सुरक्षा और स्थिरता को प्रभावित किया। नाभिकीय हथियारों की होड़ ने शक्तिशाली देशों के बीच हथियारों की बढ़ती संख्याओं और विभिन्न प्रकार की नाभिकीय प्रौद्योगिकियों के विकास को जन्म दिया। इस दौर में नाभिकीय प्रसार को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय प्रयास किए गए, जिनकी सफलता और चुनौतियाँ विभिन्न रही हैं। इस लेख में, हम शीत युद्ध के दौरान नाभिकीय हथियारों की होड़ का विवरण और नाभिकीय प्रसार को नियंत्रित करने के लिए किए गए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों की जाँच करेंगे। 

शीत युद्ध में नाभिकीय हथियारों की होड़ 

1. शीत युद्ध की शुरुआत और नाभिकीय हथियारों की होड़ 

शीत युद्ध की पृष्ठभूमि: 

द्वितीय विश्व युद्ध के अंत: द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के बाद, अमेरिका और सोवियत संघ ने वैश्विक शक्ति संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। युद्ध के दौरान, दोनों देशों ने नाभिकीय हथियारों का परीक्षण किया और उपयोग किया, जिससे नाभिकीय शक्ति की महत्वपूर्ण शुरुआत हुई। 

आयरन कर्टन और ब्लॉक्स: 1947 में शीत युद्ध की शुरुआत के साथ, दुनिया दो प्रमुख ब्लॉक्स में विभाजित हो गईअमेरिकी-नेतृत्व वाले पश्चिमी ब्लॉक और सोवियत-नेतृत्व वाले पूर्वी ब्लॉक। इस विभाजन ने नाभिकीय हथियारों की होड़ को प्रेरित किया, जहां दोनों पक्ष अपने-अपने हथियारों और प्रौद्योगिकियों को उन्नत करने की कोशिश करने लगे। 

पहला चरण (1945-1960): 

अमेरिकी मोनोपोली: शीत युद्ध की शुरुआत में, अमेरिका ने 1945 में जापान पर नाभिकीय बम गिराकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। इसके बाद, अमेरिका ने नाभिकीय हथियारों का एकाधिकार स्थापित किया, जिससे सोवियत संघ की चिंताओं को जन्म दिया। 

सोवियत संघ का परीक्षण: सोवियत संघ ने 1949 में पहला नाभिकीय परीक्षण किया, जिससे दोनों देशों के बीच हथियारों की होड़ की शुरुआत हुई। सोवियत संघ ने अपनी नाभिकीय शक्ति को बढ़ाने के लिए कई परीक्षण किए और नाभिकीय हथियारों की संख्या में तेजी से वृद्धि की। 

दूसरा चरण (1960-1980): 

हाइड्रोजन बम का विकास: 1950 के दशक के अंत में, दोनों देशों ने हाइड्रोजन बम (Thermonuclear Weapons) का विकास किया, जो नाभिकीय बम की तुलना में अधिक शक्तिशाली थे। इसने नाभिकीय हथियारों की होड़ को और बढ़ा दिया। 

मिसाइल प्रणालियाँ: 1960 और 1970 के दशकों में, मिसाइल प्रणालियों की प्रतिस्पर्धा ने नई ऊंचाइयों को छू लिया। अमेरिका और सोवियत संघ ने इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (ICBMs) और सबमरीन-लॉन्च्ड बलिस्टिक मिसाइल (SLBMs) के विकास में भारी निवेश किया। 

नाभिकीय त्रैतीयक (Nuclear Triad): दोनों देशों ने नाभिकीय त्रैतीयक को अपनाया, जिसमें भूमि, समुद्र और हवाई प्लेटफार्मों पर नाभिकीय हथियारों की क्षमता शामिल थी। यह रणनीति 'म्यूचुअल असीन्यरेशन ऑफ डेस्ट्रक्शन' (MAD) के सिद्धांत पर आधारित थी, जिसमें किसी भी आक्रमण के बदले में पूरी तरह से विनाश की संभावना थी। 

तीसरा चरण (1980-1990): 

डिफेंस सिस्टम और स्टार्ट वार्ताएँ: 1980 के दशक में, रेजन-गोरबाचेव युग के दौरान, दोनों देशों ने डिफेंस सिस्टम (जैसे स्टार वार्स) और हथियारों की संख्या को कम करने के प्रयास किए। स्टार्ट (START) वार्ताओं की शुरुआत की गई, जिसमें नाभिकीय हथियारों की संख्या को नियंत्रित करने पर विचार हुआ। 

नाभिकीय प्रसार को नियंत्रित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास 

1. नाभिकीय प्रसार पर नियंत्रण के लिए प्रारंभिक प्रयास 

1.1 परमाणु ऊर्जा आयोग (Atomic Energy Commission) और शांतिपूर्ण उपयोग: 

1946 की परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अमेरिका ने 1946 में परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित करना था। यह प्रयास नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देने के लिए किया गया था, हालांकि इसके साथ ही नाभिकीय हथियारों के प्रसार को भी नियंत्रित करने की कोशिश की गई। 

1.2 1968 का नाभिकीय अप्रसार संधि (NPT): 

NPT की स्थापना: 1968 में, नाभिकीय अप्रसार संधि (Nuclear Non-Proliferation Treaty, NPT) की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य नाभिकीय हथियारों के प्रसार को रोकना, नाभिकीय विस्फोटनों को सीमित करना और नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देना था। इस संधि ने दुनिया के नाभिकीय शक्तियों और गैर-नाभिकीय शक्तियों के बीच एक समझौता प्रदान किया। 

संधि के मुख्य तत्व: NPT के मुख्य तत्वों में नाभिकीय हथियारों का गैर-प्रसार, नाभिकीय निरस्त्रीकरण, और नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की बढ़ावा देने का संकल्प शामिल था। इसमें नाभिकीय देशों ने संधि के अनुसार अपने हथियारों को कम करने और अन्य देशों को नाभिकीय हथियारों का विकास करने से रोकने का प्रयास किया। 

2. मध्यवर्ती रेंज मिसाइलों पर नियंत्रण 

2.1 1987 का मध्यवर्ती रेंज मिसाइल संधि (INF Treaty): 

INF संधि की स्थापना: 1987 में, अमेरिका और सोवियत संघ ने मध्यवर्ती रेंज मिसाइल संधि (Intermediate-Range Nuclear Forces Treaty, INF) पर हस्ताक्षर किए। इस संधि का उद्देश्य मध्यवर्ती रेंज (500-5500 किलोमीटर) की बैलिस्टिक और क्रूज मिसाइलों को समाप्त करना था। 

संधि का प्रभाव: INF संधि ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच महत्वपूर्ण मिसाइलों को खत्म करने में मदद की और शीत युद्ध के तनाव को कम किया। यह संधि शीत युद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण कदम थी और नाभिकीय हथियारों के नियंत्रण में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी गई। 

3. Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty (CTBT) 

3.1 CTBT की स्थापना और उद्देश्य: 

CTBT का उद्देश्य: 1996 में, Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty (CTBT) की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य सभी प्रकार के नाभिकीय परीक्षणों को पूरी तरह से समाप्त करना था। इस संधि का उद्देश्य नाभिकीय हथियारों के विकास और प्रसार को रोकना था। 

संधि के प्रभाव: CTBT ने नाभिकीय परीक्षणों की निगरानी और नियंत्रण को सुनिश्चित करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय निगरानी प्रणाली (International Monitoring System) की स्थापना की। हालांकि, यह संधि सभी देशों द्वारा स्वीकृत नहीं हुई है, फिर भी इसका प्रभाव नाभिकीय परीक्षणों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण रहा है। 

4. नई START संधि 

4.1 नई START संधि की स्थापना: 

नई START संधि (2010): 2010 में, अमेरिका और रूस ने नई START संधि (Strategic Arms Reduction Treaty) पर हस्ताक्षर किए। यह संधि अमेरिका और रूस के बीच रणनीतिक नाभिकीय हथियारों की संख्या को सीमित करने के लिए की गई थी। 

संधि के मुख्य तत्व: नई START संधि ने अमेरिका और रूस के रणनीतिक नाभिकीय हथियारों की संख्या को सीमित किया और निरीक्षण और डेटा आदान-प्रदान की व्यवस्था को बेहतर बनाया। यह संधि नाभिकीय हथियारों की होड़ को नियंत्रित करने में एक महत्वपूर्ण कदम थी। 

निष्कर्ष 

शीत युद्ध के दौरान, नाभिकीय हथियारों की होड़ ने वैश्विक सुरक्षा और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच नाभिकीय हथियारों की प्रतिस्पर्धा ने दुनिया को एक नाभिकीय संघर्ष की कगार पर ला दिया। इसके बावजूद, नाभिकीय प्रसार को नियंत्रित करने के लिए किए गए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों ने हथियारों की संख्या को सीमित करने और वैश्विक सुरक्षा को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। NPT, INF संधि, CTBT, और नई START संधि जैसी अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ नाभिकीय हथियारों के प्रसार और परीक्षण को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयासों का हिस्सा रही हैं। हालांकि, इन संधियों की सफलताएँ और चुनौतियाँ दर्शाती हैं कि नाभिकीय प्रसार को पूरी तरह से नियंत्रित करने के लिए निरंतर वैश्विक सहयोग और प्रयासों की आवश्यकता है। 

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