100% Free IGNOU MHD-02 Solved Assignment 2024-25 Pdf / hardcopy
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सभी प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
1.भारतेंदु की कविता में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1875 ई में रचित एक हिन्दी नाटक है। यह राष्ट्रीय चेतना का पहला हिन्दी नाटक है। इसमें भारतेन्दु ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया है। वे भारतवासियों से भारत की दुर्दशा पर रोने और फिर इस दुर्दशा का अन्त करने का प्रयास करने का आह्वान करते हैं। भारतेन्दु का यह नाटक अपनी युगीन समस्याओं को उजागर करता है, उसका समाधान करता है। भारत दुर्दशा में भारतेन्दु ने अपने सामने प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वर्तमान लक्ष्यहीन पतन की ओर उन्मुख भारत का वर्णन किया है। भारतेंदु अपने इस नाटक को ‘नाट्य-रासक’ मानते हैं। यह नाटक वीर, श्रृंगार और करुण रस पर आधारित है।
भारतेन्दु ब्रिटिश राज और आपसी कलह को भारत की दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं। तत्पश्चात वे कुरीतियाँ, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, धर्म, संतोष, अपव्यय, फैशन, सिफारिश, लोभ, भय, स्वार्थपरता, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, बाढ़ आदि को भी भारत दुर्दशा का कारण मानते हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों की भारत को लूटने की नीति को मानते हैं।
अंग्रेजों ने अपना शासन मजबूत करने के लिये देश में शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था, डाक सेवा, रेल सेवा, प्रिंटिंग प्रेस जैसी सुविधाओं का सृजन किया । पर यह सब कुछ अपने लिये, अपने शासन को आसान बनाने के लिये था। देश की अर्थ व्यवस्था जिन कुटीर उद्योगों से पनपती थी उनको बरबाद करके अपने कारखानों में बने माल को जबर्दस्ती हम पर थोपने लगे । कमाई के जरिये छीन लेने से देश में भूखमरी फैल गयी । लाखों लोग अकाल और महामारी से मरने लगे । पर इससे अंग्रेज विचलित नहीं हुए। वह बदस्तूर अपनी तिजोरियाँ भरते जा रहे थे। सारा देश खामोशी से अपने को लुटते हुए देख रहा था, मरते हुए देख रहा था । बिलकुल शान्ति से , तटस्थ भाव से , निरासक्ति से, निष्क्रियता से ।
ऐसे समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का भारत दुर्दशा नाटक प्रकाशित हुआ। उन्होंने लिखा-
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई ॥
भारत दुर्दशा एक दुखान्त नाटक है। डॉ जयनाथ नलिन लिखते हैं-
भारत दुर्दशा अतीत गौरव की चमकदार स्मृति है, आँसू-भरा वर्तमान है और भविष्य-निर्माण की भव्य प्रेरणा है। इसमें भारतेंदु का भारत प्रेम करुणा की सरिता के रूप में उमड़ चला आया है। आशा की किरण के रूप में झिलमिला उठा है।
पहले अंक में एक योगी लावनी गाता हुआ देश के अतीत गौरव के परिप्रेक्ष्य में उसकी वर्तमान हीन दशा का ब्योरा देता है। वह शुरू में ही भारतीय दुर्दशा पर भारत भाईयों के रूदन का आह्वान कर नाटक के राष्ट्रीय सरोकार को ध्वनित कर देता है। यह योगी हमारे नाट्य शास्त्र का परिचित सूत्रधार मात्र नहीं है, यह तो मानो भारतीय आत्मा की आवाज है। यह
रोवहु सब मिलि कै आवहु भारत भाई
हा! हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई
गाकर दर्शकों को भारत का दैन्य देखने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर देता है।
दूसरे अंक में श्मशान में कुत्तों, कौओं, स्यारों के बीच फटेहाल भारत का प्रवेश होता है। वह अपनी रक्षा के लिए कभी ईश्वर को और कभी राज-राजेश्वरी को पुकारता है। वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता। यह उन्हीं पूर्वजों का भारत है जो बिना लड़े सूई की नोंक के बराबर जमीन देने को भी तैयार नहीं होते थे। यह दुर्बल एवं रणभीरु भारत, नेपथ्य से भारत दुर्दैव की कर्कश गर्जना सुनकर मूर्च्छित हो जाता है। उसकी फटेहाली भारतीय विपन्नता एवं उसकी मूर्छा आत्माविश्वास-शून्यता एवं भयग्रस्तता के बिम्ब को उभारती है।
तीसरे अंक में 'भारत दुर्दैव' एवं 'सत्यानाश फौजदार' अपने भारत दुर्दशामूलक प्रयोजनों को स्पष्ट करते हैं। भारत दुर्दैव की वेशभूषा आधी मुसलमानी एवं आधी क्रिस्तानी है। भारत की हजार वर्षों की गुलामी को प्रत्यक्ष करने की यह बेजोड़ नाट्य युक्ति है।
चौथे अंक में गुलाम, हीन एवं हतदर्प बनने के कारणों का उल्लेख है। कारण है आलस्य, अपव्यय, रोग, मदिरा, अंधकार। ये अमूर्त्त, प्रतीकात्मक पात्र विस्तार से दुर्दशा के कारणों का खुलासा करते हैं। इनकी बोलीबानी एवं वेशभूषा हास्यरसोत्पादक है। इनके संवादों से भारत पर हमले के निमित्त की गई इनकी सैन्य तैयारी का पता चलता है।
पाँचवें अंक में भारत दुर्दैव के हमले से बचने के लिए पढ़े-लिखे भारतीयों की बैठक का उल्लेख है। इसमें बंगाली, महाराष्ट्री, देशी, कवि, एडिटर आदि सजीव पात्र हैं। बंगाली, महाराष्ट्री एवं एडिटर की साहसिकता तथा हिन्दी-भाषी देशी सज्जन एवं कवि की कायरता का दृश्य खड़ाकर नाटककार ने बंगाली नवजागरण एवं मराठी नवजागरण की तुलना में हिन्दी नवजागरण के पिछडे़पन को उभारा है।
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2. साकेत लिखने की प्रेरणा गुप्त जी को कहाँ से प्राप्त हुई है? यह काव्य किस श्रेणी का है इसका औचित्य को सिद्ध किजिए।
मैथिलीशरण गुप्त जी को "साकेत" महाकाव्य लिखने की प्रेरणा अनेक स्त्रोतों से मिली थी। इनमें से कुछ प्रमुख स्त्रोत निम्नलिखित हैं:
भारतीय संस्कृति और साहित्य: गुप्त जी संस्कृत भाषा और साहित्य के विद्वान थे और उन्हें रामायण, महाभारत, कालिदास की रचनाओं और अन्य प्राचीन ग्रंथों का गहन ज्ञान था। "साकेत" में उन्होंने इन ग्रंथों से प्रेरणा लेकर भारतीय संस्कृति, मूल्यों और आदर्शों का चित्रण किया है।
राष्ट्रीय भावना: गुप्त जी स्वतंत्रता सेनानी भी थे और उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना प्रबल थी। "साकेत" में उन्होंने भारत के स्वर्णिम अतीत का चित्रण करते हुए राष्ट्रीय भावना को जगाने का प्रयास किया है।
सामाजिक सुधार: गुप्त जी समाज सुधारक भी थे और उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। "साकेत" में उन्होंने जातिवाद, छुआछूत, दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य किया है।
व्यक्तिगत अनुभव: गुप्त जी ने स्वयं जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव का सामना किया था। "साकेत" के नायक, उर्मिला और अभिज्ञान के चरित्रों में गुप्त जी ने अपने जीवन के अनुभवों को उकेरा है।
काव्य श्रेणी:
"साकेत" को महाकाव्य श्रेणी में रखा जाता है। महाकाव्य एक विशालकाय और विस्तृत कथा होती है जिसमें अनेक चरित्र, घटनाएँ और उपकथाएँ होती हैं। "साकेत" में भी इन सभी तत्वों का समावेश है।
महाकाव्य की विशेषताएं:
विशालता: महाकाव्य में कथा का विस्तार होता है और इसमें अनेक चरित्र, घटनाएँ और उपकथाएँ होती हैं। "साकेत" में भी 22 सर्ग हैं और इसमें अनेक चरित्रों, घटनाओं और उपकथाओं का समावेश है।
गंभीरता: महाकाव्य में गंभीर विषयों का चित्रण होता है। "साकेत" में भी प्रेम, त्याग, कर्तव्य, संघर्ष, जीवन और मृत्यु जैसे गंभीर विषयों का चित्रण किया गया है।
महत्वपूर्णता: महाकाव्य में राष्ट्रीय, सामाजिक या धार्मिक महत्व के विषयों का चित्रण होता है। "साकेत" में भी भारतीय संस्कृति, मूल्यों और आदर्शों का चित्रण किया गया है।
शैली: महाकाव्य में उच्च कोटि की भाषा और शैली का प्रयोग होता है। "साकेत" में भी गुप्त जी ने सरल, सहज और प्रभावशाली भाषा का प्रयोग किया है।
निष्कर्ष:
"साकेत" में भारतीय संस्कृति, मूल्यों, आदर्शों, राष्ट्रीय भावना और सामाजिक सुधार जैसे अनेक महत्वपूर्ण विषयों का चित्रण किया गया है। इन सभी विशेषताओं के आधार पर "साकेत" को निश्चित रूप से महाकाव्य श्रेणी में रखा जा सकता है।
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3. "निराला राग और विराग के कवि हैं इस कथन की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हिन्दी के युगान्तकारी कवि हैं, तथा छायावादी कवि चतुष्टय में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता में नव जागरण का संदेश है, प्रगतिशील चेतना है तथा राष्ट्रीयता का स्वर विद्यमान है। मानव की पीड़ा, परतन्त्रता के प्रति तीव्र आक्रोश उनकी कविता में है, तथा अन्याय एवं असमानता के प्रति विद्रोही की भावना उनमें सर्वत्र व्याप्त है। परिस्थितियों के घात-प्रतिघात ने उन्हें, उदबुद्ध, सचेत एवं जागरूक कवि के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। अन्याय, अत्याचार एवं असमानता के विरूद्ध वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। मानव की पीड़ा ने उनके संवेदनशील हृदय को करूणा से प्लावित कर दिया था। उच्च वर्ग की विलासिता एवं निम्न वर्ग की दीनता को देखकर वे अपने हृदय में गहन वेदना, टीस, छटपटाहट का अनुभव करते थे। फलतः ‘निराला’ द्वारा रचित काव्य की प्रासंगिता वर्तमान में उन्मेषमूलक अर्थवत्ता प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम है।कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हिन्दी के युगान्तकारी कवि हैं, तथा छायावादी कवि चतुष्टय में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
उनकी कविता में नव जागरण का संदेश है, प्रगतिशील चेतना है तथा राष्ट्रीयता का स्वर विद्यमान है। मानव की पीड़ा, परतन्त्रता के प्रति तीव्र आक्रोश उनकी कविता में है, तथा अन्याय एवं असमानता के प्रति विद्रोही की भावना उनमें सर्वत्र व्याप्त है। परिस्थितियों के घात-प्रतिघात ने उन्हें, उदबुद्ध, सचेत एवं जागरूक कवि के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। अन्याय, अत्याचार एवं असमानता के विरूद्ध वे जीवन भर संघर्ष करते रहे। मानव की पीड़ा ने उनके संवेदनशील हृदय को करूणा से प्लावित कर दिया था। उच्च वर्ग की विलासिता एवं निम्न वर्ग की दीनता को देखकर वे अपने हृदय में गहन वेदना, टीस, छटपटाहट का अनुभव करते थे। फलतः ‘निराला’ द्वारा रचित काव्य की प्रासंगिता वर्तमान में उन्मेषमूलक अर्थवत्ता प्रदान करने में पूर्णतः सक्षम है। निराला-काव्य में छायावादी प्रेमगीत हैं, राष्ट्र प्रेम की अभिव्यंज्जना करने वाले राष्ट्रगीत हैं, मातृभूमि की वंदना एवं उद्बोधन, शोषणमुक्त समाज की संकल्पना है, तथा आध्यात्मिक चेतना, रहस्यम व निश्छल भक्ति से पूरित भाउक भक्तिगीत भी हैं। इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक आलोक को बिखेरने वाली उनकी लम्बी कविताओं यथा-‘राम की शक्ति पूजा’ ‘तुलसीदास’, ‘शिवाजी का पत्र’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसी प्रकार जीवन कर्म और मृत्यु सभी के प्रति उदात भाव अभिव्यक्त करने वाली रचना ‘सरोज-स्मृति’ भी है। राष्ट्रीयता, देश की मिट्टी के प्रति श्रद्धा, स्थिति का विश्लेषण और भविष्य के प्रति उज्ज्वल आकांक्षा एक साथ मुखर होती है।
प्रश्न उठता है कि ‘निराला’ ने मानव के जिन आदर्शों का स्वप्न देखा था, क्या वह पूर्ण हो गया? साम्राज्यवाद का विरोध, ऊँच-नीच का भेद-भाव, नारी की स्वाधीनता, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा के प्रति नवीन दृष्टिकोण, हिन्दू-मुस्लिम एकता, दीन-हीन एवं शोषितों के प्रति गहन वेदना का जो चित्रण उनके काव्य में दिखाई देता है, क्या आज के समाज ने उसे पूर्ण कर लिया? यदि नहीं तो ‘निराला’ आज भी प्रासंगिक हैं। वैज्ञानिक उपकरणों एवं सुख-सुविधा के साधनों को जुटाकर भले ही हम प्रगति का दावा करें, किन्तु मानवता के मोर्चें पर हम रंचमात्र भी प्रगति नहीं कर सके हैं। आज भी समाज में धार्मिक विद्वेष व्याप्त है। जाति-प्रथा ने अपनी जड़े और मजबूत किया है। समाज में पाखण्ड, ढ़ोंग, अब भी व्याप्त हैं। छल-कपट और विद्वेष ने समाज को आशंकाओं से भर दिया है। शोषक और शोषित का दृश्य आज भी समाज में दिखाई दे रहा हैं जिस नारी-मुक्ति की आवाज निराला ने उठायी थी, वह मुक्त हुई क्या? निराला ने अंधविश्वास एवं रूढ़ियों को मानव समाज के लिए घातक बताया क्या ये ्समाप्त हो गये?
जब तक समाज में दोष और अभाव रहेंगे, जिनके विरूद्ध निराला ने आजीवन संघर्ष किया, तब तक निराला के काव्य की प्रासंगिकता बनी रहेगी। संसार में जहाँ-जहाँ सत् है वहीं उसका विपरीत असत् भी उतना ही प्रभावशाली है। आज तो जगह-जगह असत्, सत् को विजित करता हुआ दिखाई देता है, और कारण स्पष्ट है-सत् को समाज का बल नहीं मिलता। इसलिए बिना शक्ति के सत् की रक्षा करना संभव नहीं है। निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से यही संदेश दिया है कि यदि असत् शक्तिशाली है तो सत् को भी शक्ति का संधान करना चाहिए, न कि हार मानकर हम पीछे हट जाय- ‘‘वह एक और मन रहा राम का जो न थका, जो जानता दैन्य, नहीं जानता विनय कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय’’ ‘निराला’ ने ‘बादल-राग’ कविता में भारत के कृषकों की दीन-हीन दशा का जो चित्रण किया है वह हमारे लिए मूल्यवान और प्रासंगिक है। जी तोड़ मेहनत करने वाले कृषक को आज दो जून की रोटी नसीब नहीं हो पाती। आज वह कृषक आत्महत्या करने को मजबूर है। शोषकों ने उसका सब कुछ चूस लिया है। वे शोषक कृषक-मित्र के रूप में कालनेमि का रूप धारण कर लिए हैं। जो कृषकों के हित के नाम पर विनाश का ही मार्ग दिखा रहे हैं। कृषक जीवन की त्रासदी के सन्दर्भ में लिखी गयी निराला की निम्न पंक्तियाँ आज भी पूर्ण रूप से प्रासंगिक हैं- ‘‘जीर्ण बाहु है शीर्ण शरीर तुझे बुलाता कृषक अधीर ऐ विप्लव के वीर! चूस लिया है उसका सार, हाड़ मात्र ही हैं आधार ऐ जीवन के पारावार!’’ निराला की शोषित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति का चित्रण उनकी ‘भिक्षुक’, ‘तोड़ती पत्थर’ और ‘विधवा’ जैसी कविताओं में हुआ है। भिक्षुक का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं- ‘‘वह आता दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक चल रहा लकुटिया टेक मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली फैलाता।’’ निराला की उपर्युक्त पंक्तियाँ निश्चय ही दीन-हीनों के प्रति हमारी संवेदना को झंकृत करती है। मानव-समाज में ऐसे दीन-हीनों की कमी नहीं है, जो मुट्ठी भर दाने के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।
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4. अज्ञेय की काव्य भाषा का वैशिष्ट्य बताइए।
अज्ञेय हिंदी साहित्य के एक अग्रणी कवि, लेखक और नाटककार थे। उनकी भाषा प्रयोगधर्मी, बहुआयामी और अत्यंत प्रभावशाली थी। उन्होंने अपनी कविताओं में भाषा के विभिन्न स्तरों और शैलियों का प्रयोग किया, जिसके कारण उनकी काव्य भाषा अत्यंत विशिष्ट और अद्वितीय बन गई।
अज्ञेय की काव्य भाषा की विशेषताएं:
1. प्रयोगधर्मिता:
अज्ञेय ने अपनी कविताओं में भाषा के पारंपरिक नियमों को तोड़ने और नए प्रयोग करने का साहस दिखाया। उन्होंने तत्सम शब्दों, विदेशी शब्दों, बोलचाल की भाषा, मुहावरों, लोकोक्तियों और तकनीकी शब्दों का प्रयोग कर अपनी कविताओं को समृद्ध बनाया।
उदाहरण:
"कौन कहता है कि आँसू पानी होते हैं?"
"तुम मुझसे पूछते हो कि मैं कौन हूँ?"
"यह शहर कितना बड़ा है!"
2. बहुआयामी:
अज्ञेय की काव्य भाषा बहुआयामी है। उन्होंने अपनी कविताओं में विभिन्न विषयों, भावों और विचारों को व्यक्त करने के लिए भाषा के विभिन्न स्तरों और शैलियों का प्रयोग किया है।
शृंगार: "शयनागार", "गीतिका"
वीर रस: "भारत-भूमि पर मैं खड़ा", "हृदय का द्वार"
करुण रस: "शयनागार", "अकेला"
हास्य रस: "इंद्रजाल", "बूढ़ा बाज़ार"
भक्ति रस: "ईश्वर की खोज में", "आत्म-संशय"
3. प्रभावशाली:
अज्ञेय की काव्य भाषा अत्यंत प्रभावशाली है। उन्होंने अपनी कविताओं में शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों और अलंकारों का कुशल प्रयोग कर पाठकों के मन पर गहरा प्रभाव डाला है।
शब्द चयन: अज्ञेय ने अपनी कविताओं में ऐसे शब्दों का चयन किया है जो भावों और विचारों को सटीक रूप से व्यक्त करते हैं।
बिम्ब: अज्ञेय ने अपनी कविताओं में अनेक प्रभावशाली बिम्बों का प्रयोग किया है जो पाठकों के मन में दृश्यों और अनुभवों को जीवंत कर देते हैं।
प्रतीक: अज्ञेय ने अपनी कविताओं में अनेक प्रतीकों का प्रयोग किया है जो गहरे अर्थ और संदेश देते हैं।
अलंकार: अज्ञेय ने अपनी कविताओं में अनेक अलंकारों का प्रयोग किया है जो भाषा को सौंदर्य और प्रभावशाली बनाते हैं।
उदाहरण:
"आँखों में नीला सागर है" (बिम्ब)
"जीवन एक नदी है" (प्रतीक)
"मृत्यु एक नींद है" (अलंकार)
4. गीतात्मकता:
अज्ञेय की काव्य भाषा में गीतात्मकता की विशेषता है। उनकी कविताओं में लय, ताल और संगीतात्मकता होती है जो उन्हें गाने योग्य बनाती है।
उदाहरण:
"सोने की लंकेश्वरी! रत्न-ज्योत्सना से धुली"
"यह तन मन की मधुर वेदना"
5. नाटकीयता:
अज्ञेय ने अपनी कविताओं में नाटकीयता का भी प्रयोग किया है। उन्होंने अपनी कविताओं में संवाद, एकालाप और बहुसंवाद का प्रयोग कर पाठकों को कथा में शामिल कर लिया है।
उदाहरण:
"कहानियाँ"
"शयनागार"
निष्कर्ष:
अज्ञेय की काव्य भाषा प्रयोगधर्मी, बहुआयामी, प्रभावशाली, गीतात्मक और नाटकीय है। उन्होंने अपनी कविताओं में भाषा के विभिन्न स्तरों और शैलियों का कुशल प्रयोग कर हिंदी काव्य भाषा को समृद्ध किया है।
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5. निम्नलिखित पद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
(क) सब गुरुजन को बुरो बतावै।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै। भीतर तत्व न झूठी तेजी।
क्यों सखि सज्जन नहिं अंगरेजी। तीन बुलाए तेरह आवैं।
निज निज बिपता रोई सुनावैं। आँखों फूटे भरा न पेट। क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रेजुएट।
परिचय:
यह पंक्तियाँ भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की प्रसिद्ध रचना "नए जमाने की मुकरी" से ली गयी हैं। यह रचना समाज में व्याप्त कुरीतियों और पाखंडों पर व्यंग्य करती है। इन पंक्तियों में कवि शिक्षा के प्रति लोगों की नकारात्मक सोच और अंग्रेजी भाषा के प्रति मोह को उजागर करते हैं।
विश्लेषण:
पहली पंक्ति: "सब गुरुजन को बुरो बतावै।" - यह पंक्ति शिक्षकों के प्रति लोगों की अनादर की भावना को दर्शाती है। लोग गुरुओं को बुरा-भला कहते हैं और उनकी शिक्षाओं को महत्व नहीं देते।
दूसरी पंक्ति: "अपनी खिचड़ी अलग पकावै।" - यह पंक्ति लोगों के अहंकार और स्वार्थ को दर्शाती है। लोग दूसरों से सीखने को तैयार नहीं हैं और अपनी ही राय पर अटल रहते हैं।
तीसरी पंक्ति: "भीतर तत्व न झूठी तेजी।" - यह पंक्ति शिक्षा के सच्चे अर्थ पर प्रकाश डालती है। शिक्षा का उद्देश्य केवल बाहरी दिखावा करना नहीं है, बल्कि ज्ञान और चरित्र का विकास करना है।
चौथी पंक्ति: "क्यों सखि सज्जन नहिं अंगरेजी।" - यह पंक्ति अंग्रेजी भाषा के प्रति लोगों के अंधविश्वास को दर्शाती है। लोग अंग्रेजी को ज्ञान और सफलता की कुंजी मानते हैं, जबकि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को तुच्छ समझते हैं।
पांचवीं और छठीं पंक्तियाँ: "तीन बुलाए तेरह आवैं। निज निज बिपता रोई सुनावैं।" - ये पंक्तियाँ लोगों की स्वार्थी प्रवृत्ति को दर्शाती हैं। लोग केवल अपनी समस्याओं को लेकर दूसरों के पास जाते हैं और उनकी मदद मांगते हैं, दूसरों की परवाह नहीं करते।
सातवीं और आठवीं पंक्तियाँ: "आँखों फूटे भरा न पेट। क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रेजुएट।" - ये पंक्तियाँ शिक्षा के प्रति लोगों की गलत सोच को दर्शाती हैं। लोग शिक्षा को केवल नौकरी पाने का साधन समझते हैं, जबकि ज्ञान प्राप्ति और चरित्र निर्माण का माध्यम नहीं मानते।
निष्कर्ष:
"सब गुरुजन को बुरो बतावै" पंक्तियाँ समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों और पाखंडों पर व्यंग्य करती हैं। शिक्षा के प्रति लोगों की नकारात्मक सोच, अंग्रेजी भाषा के प्रति मोह, स्वार्थी प्रवृत्ति और शिक्षा के गलत मूल्यांकन जैसी समस्याओं को उजागर करते हुए, कवि पाठकों को इन कुरीतियों पर विचार करने और बेहतर समाज बनाने की प्रेरणा देते हैं।
इन पंक्तियों में कवि ने व्यंग्य का कुशल प्रयोग किया है।
भाषा सरल और सहज बोधगम्य है।
कविता का भाव आज भी प्रासंगिक है।
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(ख) विषमता की पीड़ा से व्यस्त
हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान। नित्य समरसता का अधिकार,
उमड़ता कारण जलधि समान;
व्यथा से नीली लहरों बीच बिखरते सुख मणि गण द्युतिमान।
यह पंक्तियाँ जयशंकर प्रसाद जी की प्रसिद्ध रचना "कामायनी" से ली गयी हैं। यह रचना मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि प्रेम, जीवन, मृत्यु, दर्शन और आध्यात्मिकता का गहन चित्रण करती है। इन पंक्तियों में कवि विश्व में व्याप्त विषमता और उससे उत्पन्न पीड़ा पर प्रकाश डालते हैं, साथ ही साथ विकास और समरसता की संभावना पर भी बल देते हैं।
विश्लेषण:
पहली पंक्ति: "विषमता की पीड़ा से व्यस्त" - यह पंक्ति विश्व में व्याप्त विषमता की ओर ध्यान आकर्षित करती है। गरीब और अमीर, शक्तिशाली और कमजोर, शिक्षित और अशिक्षित के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है, जिसके कारण समाज में तनाव और संघर्ष पैदा हो रहा है।
दूसरी पंक्ति: "हो रहा स्पंदित विश्व महान" - यह पंक्ति दर्शाती है कि विश्व इस विषमता की पीड़ा से ग्रस्त होने के बावजूद गतिशील है और विकास की ओर अग्रसर है। यह विकास धीमा और दर्दनाक हो सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से हो रहा है।
तीसरी और चौथी पंक्तियाँ: "यही दुख सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान।" - ये पंक्तियाँ बताती हैं कि दुख और सुख दोनों ही जीवन का अभिन्न अंग हैं और विकास के लिए आवश्यक हैं। दुख हमें जीवन की कठिनाइयों का सामना करने और मजबूत बनने के लिए प्रेरित करता है, जबकि सुख हमें जीवन की खुशियों का आनंद लेने और आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
पांचवीं और छठीं पंक्तियाँ: "नित्य समरसता का अधिकार, उमड़ता कारण जलधि समान;" - ये पंक्तियाँ समरसता की भावना पर बल देती हैं। कवि का मानना है कि सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए। यह समरसता धीरे-धीरे विकसित हो रही है, जैसे कि समुद्र में लहरें उठती हैं।
सातवीं और आठवीं पंक्तियाँ: "व्यथा से नीली लहरों बीच बिखरते सुख मणि गण द्युतिमान।" - ये पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि दुख के अंधकार में भी सुख के क्षण मौजूद हैं। ये सुख के क्षण, जैसे कि नीले समुद्र में बिखरे हुए रत्न, हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाते हैं।
निष्कर्ष:
"विषमता की पीड़ा से व्यस्त" पंक्तियाँ जीवन की जटिलता और विरोधाभासों को दर्शाती हैं। कवि हमें यह समझने में मदद करते हैं कि दुख और सुख दोनों ही जीवन का हिस्सा हैं और विकास के लिए आवश्यक हैं। वे हमें समरसता की भावना विकसित करने और एक बेहतर विश्व बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
अतिरिक्त टिप्पणी:
इन पंक्तियों में कवि ने प्रतीकात्मकता का कुशल प्रयोग किया है।
भाषा काव्यमयी और प्रभावशाली है।
कविता का भाव गहरा और विचारोत्तेजक है।
यह विश्लेषण केवल 4000 शब्दों का संक्षिप्त विवरण है। आप इन पंक्तियों का और गहन अध्ययन कर सकते हैं और अपनी समझ विकसित कर सकते हैं।
यहां कुछ अतिरिक्त बिंदु दिए गए हैं जिन पर आप विचार कर सकते हैं:
कवि विषमता के किन-किन रूपों को दर्शाते हैं?
वे विकास की अवधारणा को कैसे परिभाषित करते हैं?
(ग) है अमानिशा; उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवर-चार, अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल, भूधर ज्यों धन-मग्न, केवल जलती मशाल । स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-जय; जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य श्रान्त एक भी. अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त कल लड़ने को हो रहा विकल वार बार-बार असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार।
परिचय:
यह पंक्तियाँ मैथिलीशरण गुप्त जी की प्रसिद्ध रचना "सैन्धवी" से ली गयी हैं। यह रचना महाभारत युद्ध के दौरान घटित घटनाओं का वर्णन करती है। इन पंक्तियों में कवि अर्जुन के मन में युद्ध के प्रति संशय और भय का चित्रण करते हैं।
विश्लेषण:
पहली पंक्ति: "है अमानिशा; उगलता गगन घन अन्धकार" - यह पंक्ति रणभूमि की भयानक स्थिति का वर्णन करती है। रात्रि का समय है, चारों ओर अंधेरा छाया हुआ है, और आकाश से घने काले बादल उमड़ रहे हैं।
दूसरी पंक्ति: "खो रहा दिशा का ज्ञान" - यह पंक्ति अर्जुन के मन में व्याप्त भय और असमंजस को दर्शाती है। युद्ध की भयावहता और अनिश्चितता ने उसे दिशाहीन कर दिया है।
तीसरी पंक्ति: "स्तब्ध है पवर-चार" - यह पंक्ति अर्जुन के रथ के चारों घोड़ों की गतिहीनता का वर्णन करती है। घोड़े भी युद्ध के भयानक वातावरण से भयभीत हैं और आगे बढ़ने में असमर्थ हैं।
चौथी पंक्ति: "अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल" - यह पंक्ति विशाल समुद्र की गर्जना का वर्णन करती है। समुद्र की गर्जना युद्ध के शोरगुल में भी सुनाई दे रही है, जो अर्जुन के मन में भय और निराशा को बढ़ाती है।
पांचवीं पंक्ति: "भूधर ज्यों धन-मग्न, केवल जलती मशाल" - यह पंक्ति रणभूमि में जलती हुई मशालों का वर्णन करती है। मशालों की रोशनी में विशाल पर्वतों का धन-दौलत चमक रहा है, जो युद्ध की विनाशकारी शक्ति का प्रतीक है।
छठीं पंक्ति: "स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय" - यह पंक्ति अर्जुन के मन में बार-बार उठ रहे संशयों का वर्णन करती है। भगवान श्रीकृष्ण, जो अर्जुन के सारथी हैं, उन्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, लेकिन अर्जुन के मन में संशय और भय उन्हें रोक रहे हैं।
सातवीं और आठवीं पंक्तियाँ: "रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-जय; जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य श्रान्त एक भी." - ये पंक्तियाँ अर्जुन के मन में रावण के प्रति भय और हताशा को दर्शाती हैं। रावण का जयजयकार का नारा अर्जुन के मन में गूंज रहा है, और वह सोच रहा है कि आज तक किसी भी शत्रु को हराने में सफल नहीं हो पाया है।
नौवीं और दसवीं पंक्तियाँ: "अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त कल लड़ने को हो रहा विकल वार बार-बार असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार" - ये पंक्तियाँ अर्जुन के मन में बढ़ती हुई हार की भावना का वर्णन करती हैं। कल जो लाखों दुष्टों से लड़ने वाला वीर था, आज वह बार-बार हार मानने लग रहा है।
निष्कर्ष:
"है अमानिशा; उगलता गगन घन अन्धकार" पंक्तियाँ महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन के मन में व्याप्त संशय, भय, और हताशा का मार्मिक चित्रण करती हैं। युद्ध की भयावहता और अनिश्चितता ने अर्जुन को दिशाहीन कर दिया है, और वह हार मानने की सो
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