100% Free IGNOU MHD-01 Solved Assignment 2024-25 Pdf / hardcopy

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निम्नलिखित सभी प्रश्नों के उत्तर दीजिए : 

1. चंद को छंद का राजा क्यों कहा जाता है? 

चंद को छंदों का राजा इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने हिंदी साहित्य में अनेक नवीन छंदों का प्रयोग किया और छंदों को कला का दर्जा दिलाया। 

उनके योगदानों में कुछ प्रमुख बातें: 

  • छंदों की विविधता: चंद ने अनेक नवीन छंदों का प्रयोग किया, जैसे कि - चौपाई, दोहा, सोरठा, छप्पय, कुंडलिया, बारहमासा, फुटकर आदि। उन्होंने इन छंदों का प्रयोग विभिन्न भावों और विषयों के अनुरूप किया। 

  • छंदों में कलात्मकता: चंद ने छंदों को केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि कला का रूप माना। उन्होंने छंदों में लय, ताल, और तुकांत का सटीक प्रयोग किया। 

  • छंदों का प्रभाव: चंद के छंदों का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके बाद के अनेक कवियों ने उनके छंदों का अनुकरण किया और उनका विकास किया। 

चंद के कुछ प्रसिद्ध छंद: 

पृथ्वीराज रासो में अनेक छंदों का प्रयोग हुआ है, जिनमें चौपाई, दोहा, सोरठा, छप्पय, कुंडलिया आदि शामिल हैं। 

  • उदाहरण: 

  • चौपाई: 

"जै जयकार जयकार, जयकार जयकार।" "रनधीर रणधीर, रणधीर रणधीर।" 

दोहा: 

"बीरबल के चतुरताइ, सारी जग में रानी।" "पृथ्वीराज रानी नंदिनी, सोभा अति सुखानी।" 

निष्कर्ष: 

चंद ने हिंदी साहित्य में छंदों को कला का दर्जा दिलाया और उन्हें एक नया आयाम दिया। उनके योगदानों के लिए उन्हें "छंदों का राजा" कहा जाता है। 

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2. पृथ्वीराज रासों की प्रामाणिकता अप्रामाणिकता से जुड़े विभिन्न मुद्दों का विश्लेषण कीजिए। 

पृथ्वीराज रासो, महाकवि चंदबरदायी द्वारा रचित 12वीं शताब्दी का महाकाव्य, हिंदी साहित्य का एक रत्न माना जाता है। यह वीर रस का अद्भुत ग्रंथ है, जिसमें पृथ्वीराज चौहान, 12वीं शताब्दी के दिल्ली के राजा, के जीवन और वीरता का वर्णन है। 

लेकिन, क्या पृथ्वीराज रासो ऐतिहासिक रूप से सटीक है? यह प्रश्न सदैव से विद्वानों और साहित्यकारों के बीच बहस का विषय रहा है। रासो में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं, पात्रों और युद्धों का वर्णन है, लेकिन इसकी प्रामाणिकता को लेकर अनेक मतभेद भी हैं। 

प्रामाणिकता के पक्ष में तर्क: 

  • समकालीनता: चंदबरदायी, पृथ्वीराज चौहान के समकालीन थे, और उन्होंने रासो रचना 12वीं शताब्दी में ही की थी। 

  • विवरण: रासो में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं, पात्रों और युद्धों का विस्तृत विवरण दिया गया है, जो इतिहास के अन्य स्रोतों से मेल खाता है। 

  • पुरातात्विक साक्ष्य: रासो में वर्णित कुछ घटनाओं और स्थानों की पुष्टि पुरातात्विक साक्ष्यों द्वारा भी होती है। 

  • मौखिक परंपरा: रासो की कथाएं सदियों से लोककथाओं और मौखिक परंपरा के माध्यम से जीवित रही हैं, जो इसकी प्रामाणिकता को दर्शाता है। 

अप्रामाणिकता के पक्ष में तर्क: 

  • अतिशयोक्ति: रासो में वीरता और युद्धों का वर्णन अत्यधिक अतिशयोक्तिपूर्ण और अवास्तविक लगता है। 

  • काल्पनिक घटनाएं: रासो में कुछ घटनाएं और पात्र पूरी तरह से काल्पनिक प्रतीत होते हैं, जिनका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है। 

  • विरोधाभास: रासो में कुछ ऐतिहासिक घटनाओं और तथ्यों का वर्णन भिन्न-भिन्न तरीके से किया गया है, जो विरोधाभास पैदा करता है। 

  • राजनीतिक प्रेरणा: कुछ विद्वानों का मानना है कि रासो को पृथ्वीराज चौहान के वंशजों द्वारा उनकी वीरता और राजनीतिक महत्व को बढ़ाने के लिए लिखा गया था। 

निष्कर्ष: 

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एक जटिल विषय है। इसमें ऐतिहासिक सत्य और कल्पना का मिश्रण है। रासो निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है, लेकिन इसे पूर्ण रूप से सटीक मानना उचित नहीं होगा। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रासो का मूल्य केवल ऐतिहासिक तथ्यों तक सीमित नहीं है। यह एक अद्भुत साहित्यिक कृति है जो वीरता, प्रेम, त्याग और बलिदान जैसे मूल्यों को दर्शाती है। रासो ने हिंदी साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया है और आज भी पाठकों को प्रेरित करती है। 

अतिरिक्त जानकारी: 

विभिन्न संस्करण: पृथ्वीराज रासो के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें भिन्नताएं पाई जाती हैं। 

आलोचनात्मक अध्ययन: रासो पर अनेक विद्वानों द्वारा गहन आलोचनात्मक अध्ययन किया गया है। 

आधुनिक अनुवाद: रासो का हिंदी और अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है। 

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3. विद्यापति पदावली में भक्ति और श्रृंगार का द्वंद्व किस रूप में प्रकट हुआ? 

  

वद्यापति 15वीं शताब्दी के मैथिली कवि थे जिन्हें "मैथिल कोकिल" के नाम से भी जाना जाता है। उनकी रचनाओं में भक्ति और श्रृंगार दो प्रमुख रस हैं जो एक दूसरे के साथ द्वंद्वात्मक रूप से प्रकट होते हैं। 

भक्ति: 

विद्यापति की भक्ति राधा-कृष्ण केंद्रित है। वे राधा को नायिका और कृष्ण को नायक के रूप में चित्रित करते हैं। उनकी भक्ति भावुक, तीव्र और अंतरंग है। 

उदाहरण: 

"कहिअत विद्यापति, मधुबन मधुपुर, मधुकर मधुमय।" (विद्यापति कहते हैं, मधुबन मधुपुर है, जहां मधुमक्खियां मधुर गीत गाती हैं।) 

"तेरे मधुर मुरली ध्वनि सुनि, मोरे मन डोलै।" (तेरी मधुर मुरली की ध्वनि सुनकर, मेरा मन मोहित हो जाता है।) 

श्रृंगार: 

विद्यापति की श्रृंगार रचनाएं प्रेम और सौंदर्य का उत्सव मनाती हैं। वे नारी सौंदर्य का अद्भुत चित्रण करते हैं और प्रेम की तीव्र भावनाओं को व्यक्त करते हैं। 

उदाहरण: 

"कंचन कटि, कर मंगल, मुख ससि किरण ज्योति।" (सोने की कमर, मंगलकारी हाथ, और चांदनी की तरह चमकता चेहरा।) 

"प्रेम पिया मिलन काहे नहिं आवत।" (प्यारे से मिलन क्यों नहीं होता?) 

भक्ति और श्रृंगार का द्वंद्व: 

विद्यापति की रचनाओं में भक्ति और श्रृंगार एक दूसरे के साथ द्वंद्वात्मक रूप से प्रकट होते हैं। 

प्रेम की समानता: विद्यापति राधा-कृष्ण के प्रेम को सांसारिक प्रेम के समान मानते हैं। 

प्रेम की तीव्रता: दोनों प्रकार के प्रेम में तीव्रता और समर्पण समान होता है। 

प्रेम का लक्ष्य: दोनों प्रकार के प्रेम का लक्ष्य मिलन और आनंद प्राप्त करना होता है। 

विद्यापति की अनूठी शैली: 

विद्यापति की रचनाओं में संस्कृत और मैथिली भाषा का मिश्रण होता है। उनकी भाषा सरल, मधुर और लयबद्ध है। वे प्रकृति और रूपकों का कुशलतापूर्वक प्रयोग करते हैं। 

विद्यापति का प्रभाव: 

विद्यापति मैथिली साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। उनकी रचनाओं ने हिंदी साहित्य और संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है। 

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4.मध्य युग के प्रगतिशील रचनाकार के रूप में कबीर का मूल्यांकन कीजिए। 

 कबीर की कविता हिन्दी आलोचना के सर्वाधिक विचारणीय काव्य-क्षेत्रों में शामिल रही है। इसकी व्यापक और सुदीर्घ लोकप्रियता तथा क्रान्तिकारी प्रभावों ने हिन्दी आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। आलोचकों को यह अपने कालजयी मूल्यों और साहित्यिक तत्त्वों के अन्वेषण के लिए आमन्त्रण और चुनौती देता रहा है। हिन्दी के प्रमुख आलोचकों ने कबीर-काव्य के सामाजिक सरोकारों के साथ क्रान्तिकारी परिवर्तन की भूमिका की भी तलाश की है। कबीर की कविता अनेक आलोचकों के आलोचना के प्रतिमान विकसित करने का आधार भी बनी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि हिन्दी आलोचना में कबीर की कविता का मूल्यांकन किस रूप में किया गया है? उसके मूल्यांकन के लिए विभिन् आलोचकों ने क्या आधार चुना है? आलोचकों ने कबीर की कविता से क्या निष्कर्ष निकाले हैं; और इसने भक्ति-काव्य को समझने के तरीके को कैसे प्रभावित किया है इन बातों को ध्यान में रखकर इस पाठ में विचार किया गया है। 

    परवर्ती काल के अनुयायियों के साथ-साथ उनके समकालीनों ने भी कबीर के रचनाओं पर विचार किया है। इनमें हिन्दी आलोचना के उद्भव के पूर्व के रचनाकार नाभादास के कबीर सम्बन्धी दो छप्पय बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर सम्बन्धी एक प्रसिद्ध छप्पय में नाभादास ने लिखा है 

 कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरसनी  

भक्ति विमुख जो धर्म सो अधरम कर गायौ  

जोग, जग्य, व्रत, दान, भजन, बिनु तुच्छ दिखायो  

हिन्दू तुरक प्रमान, रमैनी, शबदी, साखी  

पक्षपात नहीं बचन, सबही के हित की भाखी  

आरूढ़ दसा हे जगत पर, मुख देखी नाहिन भनी  

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरसनी  

(प्रकाश नारायण दीक्षित (सं);  भक्तमाल : एक अध्ययनप्रथम संस्करण सन् 1961, साहित्य भवन, इलाहाबाद, पृ. 69) 

 अर्थात् कबीर ने भक्ति से विमुख धर्म को अधर्म कहा। योग, यज्ञ, व्रत और दान को भजन बिना तुच्छ बताया। हिन्दू और तुर्क में भेद करने के बजाय पक्षपात रहित रहने को कहा और सबका हित करने वाली साखी, शबद, रमैनी के रूप में अपना वचन सुनाया। किसी की मुँहदेखी नहीं कही, चाहे वह कितना भी बड़ा हो। और वर्णाश्रम और षटदर्शन की मर्यादा नहीं रखी। नाभादास को कबीर की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ चिन्हित करने में पर्याप् सफलता मिली है। नाभादास ने अपने भक्तमाल में मीरा की विशेषताएँ भी इतनी ही बारीकी से गिनाई। कबीर काव्य के आधुनिक आलोचकों ने भी विस्तार से कबीर का यही रूप प्रस्तुत किया है। कबीर ने वर्ण, धर्म, जाति आदि के आधार पर भेद करने को अस्वीकार किया और समानतापरक मानवीय मूल्यों की स्थापना पर जोर दिया। उन्होंने बाह्याडम्बर और कर्मकाण्ड के बजाय शान्त समर्पित भक्ति और प्रेम का मार्ग दिखाया। 

 आधुनिक काल से पूर्व निर्मित कबीर की यह छवि हिन्दी आलोचना को विरासत में मिली थी। हिन्दी आलोचना आरम्भ में कमोवेश इसी रास्ते की ओर उन्मुख हुई। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारोंगार्सा तासी, शिव सिंह सैंगर, जॉर्ज गियर्सन, मिश्रबन्धुओं ने कबीर की नोटिस ली, जो विकास की दृष्टि से भले ही महत्त्वपूर्ण हों पर कबीर काव्य के मूल्यांकन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि मिश्रबन्धुओं ने कबीर को तुलसी और सूर के साथ हिन्दी कविता के नवरत्नों में स्थान दिया था। उनके बाद के हिन्दी साहित्य के इतिहासकार रामचन्द्र शुक्ल ने कविता की त्रिवेणी में जायसी को शामिल किया और कबीर को बाहर कर दिया। इसी समय सन् 1916 . में अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने कबीर-वचनावली का सम्पादन कर उसकी लम्बी भूमिका लिखी। इस भूमिका में उन्होंने कबीर की रचनाओं को हिन्दू-पद्धति के अनुरूप दिखाने की कोशिश की। कबीर सम्बन्धी आलोचना की दृष्टि से तीसरे दशक में आई श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित कबीर ग्रन्थावली की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने एक तरफ तो बाद के आलोचकों के लिए पाठाधार का निर्माण कर दिया और दूसरी तरफ उसकी प्रस्तावना में कबीर सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण दिशाओं का उल्लेख किया। कबीर सम्बन्धी आलोचना में उल्लेखनीय परिवर्तन सन् 1942 में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक कबीर के प्रकाशन के बाद आया। यह पुस्तक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की बहुत-सी मान्यताओं का प्रतिवाद करती थी। इसलिए हम पहले रामचन्द्र शुक्ल की कबीर सम्बन्धी आलोचना से परिचित होंगे। इसके बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की स्थापनाओं को समझेंगे। 

 रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि में कबीर 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कबीर सम्बन्धी आलोचना में कबीर एवं निर्गुण सन्तों के प्रति नकारात्मक दृष्टि स्पष्ट झलकती है। तुलसी की रचनाओं के आधार पर आलोचकीय प्रतिमान विकसित करने वाले आचार्य शुक्ल ने भक्ति के तीन अंगकर्म, धर्म और ज्ञान माने हैं उनके मत से रामकाव्य इसीलिए सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें तीनों अंगों का पूर्ण विकास मिलता है। इस प्रतिमान पर उन्हें कबीर आदि सन्तों का निर्गुण-काव्य सीमित महत्त्व का लगा। उन्होंने उसे कर्म से दूर कर देने वाला माना। उन्होंने लिखा कि – “कबीर तथा अन्य निर्गुणपन्थी सन्तों के द्वारा अन्तस्साधना में रागात्मिकाभक्तिऔरज्ञानका योग तो हुआ, परकर्मकी दशा वही रही, जो नाथपन्थियों के यहाँ थी। इन सन्तों के ईश्वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वरूप हो पाए।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्लहिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 42)  

रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना की शैली केवल निर्णयकर्ता वाली नहीं है, बल्कि वे साहित्य का विश्लेषण भी करते हैं। कबीर-काव्य के आलोचनात्मक विश्लेषण में उन्होंने कबीर की अनेक विशेषताएँ रेखांकित की हैं, जो उल्लेखनीय हैं। उन्होंने कबीर को निर्गुण पन्थ का प्रवर्तक माना है। वे लिखते हैं कि – “नामदेव की रचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणपन्थ के लिए मार्ग निकालनेवाले नाथपन्थ के योगी और भक्त नामदेव थे। जहाँ तक पता चलता है, ‘निर्गुण मार्गके निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे…” आचार्य शुक्ल ने कबीर को हिन्दू और मुसलमान के बीच सामान्य भक्ति मार्ग निकालकर एकता स्थापित करने का श्रेय दिया है। वे लिखते हैं किभक्ति के आन्दोलन की जो लहर दक्षिण से आई, उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई।महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (संवत् 1328-1408) ने हिन्दू-मुसलमानदोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग निर्गुणपन्थ के नाम से चलाया। 

रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर काव्य के सामाजिक महत्त्व को भी रेखांकित किया। वे कबीर की भक्ति को शुष्कता एवं निम्नवर्गीय जनता की आत्मदीनता के भाव से उबारने के कारण महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उन्होंने लिखा है किइसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला जो नाथपन्थियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम् श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।”(आचार्य रामचन्द्र शुक्लहिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 42) 

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 5. लोकतत्व से आप क्या समझते हैं? पदमावत में वर्णित लोकतत्वों का परिचय दीजिए 

लोकतत्व शब्द का अर्थ है "लोक से संबंधित" या "लोगों का तत्व" साहित्य में, लोकतत्व का प्रयोग उन तत्वों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो आम लोगों के जीवन, संस्कृति और परंपराओं से जुड़े होते हैं। 

लोकतत्वों की विशेषताएं: 

  • सरल भाषा: लोकतत्वों का वर्णन सरल और सहज भाषा में किया जाता है, जो आम लोगों द्वारा आसानी से समझी जा सकती है। 

  • ग्रामीण जीवन: लोकतत्वों में अक्सर ग्रामीण जीवन, प्रकृति, और कृषि कार्यों का चित्रण होता है। 

  • सामाजिक रीति-रिवाज: लोकतत्वों में विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों, त्योहारों, और परंपराओं का वर्णन होता है। 

  • मौखिक परंपरा: लोकतत्वों का प्रसार अक्सर मौखिक परंपरा के माध्यम से होता है, जैसे कि लोककथाएं, गीत, और कहावतें। 

  • कल्पना और प्रतीकवाद: लोकतत्वों में अक्सर कल्पना और प्रतीकवाद का प्रयोग होता है, जो उन्हें और अधिक रोचक और प्रभावशाली बनाता है। 

पदमावत में लोकतत्वों का चित्रण: 

  • जायसी का महाकाव्य "पदमावत" लोकतत्वों से भरपूर है। 

  • कहानी का आधार: कहानी का आधार लोककथाओं और मौखिक परंपराओं से लिया गया है। 

  • पात्र: कहानी के पात्र आम लोगों, राजाओं, रानियों, और वीर योद्धाओं से मिलकर बने हैं। 

  • भाषा: कविता में सरल और सहज भाषा का प्रयोग किया गया है, जिसमें अनेक लोकभाषा के शब्द और मुहावरे शामिल हैं। 

  • वर्णन: कविता में प्रकृति, ग्रामीण जीवन, और विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों का सुंदर चित्रण किया गया है। 

  • कल्पना और प्रतीकवाद: कविता में कल्पना और प्रतीकवाद का भरपूर प्रयोग किया गया है, जो इसे और अधिक रोचक और आकर्षक बनाता है। 

  

उदाहरण: 

  • पहला भाग: पहले भाग में, सिंहलद्वीप के राजा महारावल भोज और उनकी रानी पद्मावती का विवाह का वर्णन है। इसमें लोककथाओं और मौखिक परंपराओं से जुड़े अनेक तत्व शामिल हैं। 

  • दूसरा भाग: दूसरे भाग में, दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी पद्मावती की सुंदरता के बारे में सुनकर मोहित हो जाता है और उसे प्राप्त करने के लिए युद्ध करता है। इसमें वीरता, प्रेम, और बलिदान जैसे विषयों का चित्रण है। 

  • तीसरा भाग: तीसरे भाग में, पद्मावती अपनी सखियों के साथ रानी रूपमती के महल में शरण लेती है। इसमें महिलाओं के साहस और दृढ़ संकल्प का चित्रण है। 

निष्कर्ष: 

पदमावत में लोकतत्वों का चित्रण अत्यंत प्रभावशाली और सुंदर है। जायसी ने कल्पना, प्रतीकवाद, और सरल भाषा का प्रयोग करके लोकजीवन के विभिन्न पहलुओं को जीवंत रूप से प्रस्तुत किया है। 

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6. मीरा की भक्ति में उनके जीवनानुभवों की सच्चाई और मार्मिकता है, कथन पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। 

मीराबाई कहती हैं कि मुझे मिली है, मुझे भगवान का नाम रूपी रतन संपत्ति मिली है। मेरे सतगुरु ने मुझे यह अमूल्य वस्तु दी हैं। उनकी कृपा से मैंने उसे स्वीकार किया है। जन्मजन्म की भक्ति रूपी मूलधन को मैंने पाया है। लेकिन इसके बदले में संसार के सभी चीजों को खोयी हूँ। फिर भी मैं बहुत खुश हूँ। क्योंकि इसे कोई भी नहीं खर्च कर सकता, कोई भी नहीं लूट सकता है। दिन-दिन उसमें वृद्धि हो रही है। सच रूपी नाव के, नाविक मेरे सत्गुरु है। उन्ही के सहारे मैं भवसागर को पार चुका हूँ। मीरा के प्रभु गिरिधर चतुर है, उन्हीं मीराबाई खुशीखुशी से गाती है इस प्रकार मीरा इन पदों में श्रीकृष्ण को सत्गुरु की कीर्ति बनाकर उनका दर्शन करने का उद्देश्य प्रकट करती हैं।  

विशेषता : इसमें सांसारिक बंधनों का त्याग, ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना है। रागात्मक ली है। 

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7.तुलसी की कविता में चित्रित जीवन फलक का विवेचन कीजिए। 

तुलसीदास, जिन्हें "हिंदी साहित्य का सूर्य" भी कहा जाता है, 16वीं शताब्दी के महान कवि थे। उनकी रचनाओं में जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्रण मिलता है। 

जीवन फलक: 

"जीवन फलक" शब्द का अर्थ है "जीवन का चित्रण" तुलसी की कविता में जीवन फलक का चित्रण अत्यंत व्यापक और गहन है। 

जीवन के विभिन्न चरण: 

तुलसी की कविता में जीवन के विभिन्न चरणों, जैसे कि जन्म, बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था, और मृत्यु का चित्रण मिलता है। 

जन्म: 

जन्म को ईश्वर का वरदान माना गया है। 

मनुष्य को जीवन में अपना उद्देश्य ढूंढने और उसे पूरा करने के लिए प्रेरित किया गया है। 

बचपन: 

बचपन को मासूमियत और सीखने का समय माना गया है। 

बच्चों को सदाचार और सद्गुणों के साथ जीने की शिक्षा दी गई है। 

युवावस्था: 

युवावस्था को ऊर्जा और उत्साह का समय माना गया है। 

युवाओं को परिश्रम, साहस, और त्याग के साथ जीवन जीने के लिए प्रेरित किया गया है। 

वृद्धावस्था: 

वृद्धावस्था को अनुभव और ज्ञान का समय माना गया है। 

वृद्धों को युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करने और उन्हें जीवन के मूल्यों से परिचित कराने के लिए प्रेरित किया गया है। 

मृत्यु: 

मृत्यु को जीवन का अंतिम चरण माना गया है। 

मनुष्यों को मृत्यु के लिए तैयार रहने और सदाचारी जीवन जीने की शिक्षा दी गई है। 

जीवन के विभिन्न पहलू: 

तुलसी की कविता में जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि प्रेम, भक्ति, नीति, और दर्शन का चित्रण मिलता है। 

प्रेम: 

तुलसी ने प्रेम को ईश्वर की सर्वोच्च अभिव्यक्ति माना है। 

उन्होंने राधा-कृष्ण के प्रेम का अद्भुत चित्रण किया है। 

भक्ति: 

तुलसी भक्ति के कवि थे। 

उन्होंने रामभक्ति को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य माना है। 

नीति: 

तुलसी ने अपनी रचनाओं में नीति और सदाचार के अनेक उपदेश दिए हैं। 

उन्होंने मनुष्यों को सत्य, अहिंसा, दया, और क्षमा जैसे मूल्यों के साथ जीने की शिक्षा दी है। 

दर्शन: 

तुलसी की कविता में वेदांत दर्शन का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। 

उन्होंने आत्मा, परमात्मा, और मोक्ष जैसे विषयों पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। 

जीवन का उद्देश्य: 

तुलसी की कविता के अनुसार, जीवन का उद्देश्य ईश्वर को प्राप्त करना और सदाचारी जीवन जीना है। 

निष्कर्ष: 

तुलसी की कविता में जीवन फलक का चित्रण अत्यंत सारगर्भित और प्रेरक है। उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं और हमें जीवन जीने की सही राह दिखाती हैं। 

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8 बिहारी की कविता में चित्रित संयोग और वियोग श्रृंगार का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।  

बिहारी, जिन्हें "रीतिकालीन साहित्य का शिरोमणि" भी कहा जाता है, 17वीं शताब्दी के महान कवि थे। उनकी रचनाओं में श्रृंगार रस का अद्भुत चित्रण मिलता है। 

संयोग श्रृंगार: 

संयोग श्रृंगार में नायक और नायिका का मिलन और प्रेम का आनंद चित्रित होता है। बिहारी ने अपनी रचनाओं में संयोग श्रृंगार के अनेक मनोरम दृश्य प्रस्तुत किए हैं। 

उदाहरण: 

"नैनन तीर मारति, मधुबन मधुपुर, मधुकर मधुमय।" (नयन बाण मारती हैं, मधुबन मधुपुर है, जहां मधुमक्खियां मधुर गीत गाती हैं।) 

"कंचन कटि, कर मंगल, मुख ससि किरण ज्योति।" (सोने की कमर, मंगलकारी हाथ, और चांदनी की तरह चमकता चेहरा।) 

वियोग श्रृंगार: 

वियोग श्रृंगार में नायक और नायिका का वियोग और प्रेम की पीड़ा चित्रित होती है। बिहारी ने अपनी रचनाओं में वियोग श्रृंगार के अनेक मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किए हैं। 

उदाहरण: 

"जियत बिहारी लरिकai, जिनके विरह सौतन।" (बिहारी कहते हैं, जिनके वियोग में सौतन भी सुंदर लगती है।) 

"दिन तन्यौ रतियां बड़ी, जियरा जौं नहिं आवै।" (दिन तन जाते हैं और रातें लंबी लगती हैं, यदि प्रिय नहीं आता।) 

बिहारी की शैली: 

बिहारी की रचनाओं में सरल और सहज भाषा का प्रयोग होता है। वे अपनी रचनाओं में अनेक अलंकारों का कुशलतापूर्वक प्रयोग करते हैं। 

भाषा: 

बिहारी की भाषा अवधी और ब्रजभाषा का मिश्रण है। 

वे सरल और सहज शब्दों का प्रयोग करते हैं, जो उनकी रचनाओं को आम लोगों के लिए भी सुगम बनाते हैं। 

अलंकार: 

बिहारी अपनी रचनाओं में अनेक अलंकारों का प्रयोग करते हैं, जैसे कि रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, और अनुप्रास। 

इन अलंकारों का प्रयोग उनकी रचनाओं को और अधिक प्रभावशाली और मनोरम बनाता है। 

बिहारी का योगदान: 

बिहारी ने हिंदी साहित्य में श्रृंगार रस को नया आयाम दिया। उनकी रचनाओं में प्रेम की तीव्रता, सौंदर्य का अद्भुत चित्रण, और भाषा की मधुरता का अद्भुत संगम मिलता है। 

निष्कर्ष: 

बिहारी की कविता में चित्रित संयोग और वियोग श्रृंगार हिंदी साहित्य का अमूल्य रत्न है। उनकी रचनाएं आज भी पाठकों को प्रेम और सौंदर्य की भावना से भर देती हैं। 

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9. घनानंद की कविता में वर्णित प्रेम रीतिकाल के अन्य कवियों से किन मायनों में अलग हैं।

घनानंद, जिन्हें "रीतिकाल के विद्रोही कवि" भी कहा जाता है, 17वीं शताब्दी के महान कवि थे। उनकी रचनाओं में प्रेम रीतिकाल के अन्य कवियों से भिन्न अनेक विशेषताएं हैं। 

रीतिकालीन प्रेम: 

रीतिकालीन प्रेम का चित्रण मुख्य रूप से इंद्रियजनित और भौतिक होता है। रीतिकालीन कवि शृंगार रस पर अधिक ध्यान देते हैं और प्रेम की तीव्रता और सौंदर्य का चित्रण करते हैं। 

घनानंद का प्रेम: 

घनानंद का प्रेम आध्यात्मिक और अलौकिक है। वे प्रेम की पीड़ा और वियोग का चित्रण करते हैं। 

रीतिकालीन प्रेमिका: 

रीतिकालीन प्रेमिका नायिका होती है, जो सुंदर, मोहक, और चंचल होती है। 

घनानंद की प्रेमिका: 

घनानंद की प्रेमिका प्रेममयी, समर्पित, और सदाचारिणी होती है। 

रीतिकालीन प्रेम चित्रण: 

रीतिकालीन प्रेम चित्रण में अलंकारों का अधिक प्रयोग होता है। 

घनानंद का प्रेम चित्रण: 

घनानंद का प्रेम चित्रण सरल और स्पष्ट होता है। 

उदाहरण: 

रीतिकालीन कवि: 

"नैनन तीर मारति, मधुबन मधुपुर, मधुकर मधुमय।" (बिहारी) 

"हिंयरी नैनन मृदु मुसकान, ललित ललाट तिलक छबि।" (भूषण) 

घनानंद: 

"जियत बिहारी लरिकai, जिनके विरह सौतन।" 

"दिन तन्यौ रतियां बड़ी, जियरा जौं नहिं आवै।" 

निष्कर्ष: 

घनानंद की कविता में वर्णित प्रेम रीतिकाल के अन्य कवियों से भिन्न है क्योंकि यह आध्यात्मिक, अलौकिक, और पीड़ादायक है। घनानंद प्रेम की तीव्रता और सच्चा रूप दर्शाते हैं, जबकि रीतिकाल के अन्य कवि इंद्रियजनित और भौतिक प्रेम पर अधिक ध्यान देते हैं। 

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10. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : 

 (क)प‌द्माकर का काव्य शिल्प 

 पद्माकर, जिन्हें "कुशल कवि" और "मैथिली साहित्य का सूर्य" भी कहा जाता है, 16वीं शताब्दी के महान कवि थे। उनकी रचनाओं में भाषा, भाव, और अलंकारों का अद्भुत समन्वय मिलता है। 

भाषा: 

सरलता: पद्माकर की भाषा सरल, सहज और बोधगम्य है। वे आम लोगों की भाषा का प्रयोग करते हैं, जिससे उनकी रचनाएं सभी के लिए सुलभ हो जाती हैं। 

मधुरता: पद्माकर की भाषा मधुर और लयबद्ध है। वे अपनी रचनाओं में छंदों और अक्षरों का कुशलतापूर्वक प्रयोग करते हैं, जिससे उनकी रचनाओं में संगीत का भाव पैदा होता है। 

वैविध्य: पद्माकर की भाषा में अनेक भाषाओं और बोलियों का मिश्रण मिलता है। वे संस्कृत, हिंदी, मैथिली, भोजपुरी, और अवधी भाषाओं का प्रयोग करते हैं, जिससे उनकी भाषा में विविधता और समृद्धि आती है। 

भाव: 

शृंगार: पद्माकर की रचनाओं में श्रृंगार रस का अद्भुत चित्रण मिलता है। वे प्रेम की तीव्रता, सौंदर्य का वर्णन, और नारी-पुरुष के मिलन-वियोग का मार्मिक चित्रण करते हैं। 

भक्ति: पद्माकर भक्ति के कवि थे। वे राधा-कृष्ण भक्ति को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते थे। उनकी रचनाओं में भक्ति भावना की तीव्रता और ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। 

नीति: पद्माकर की रचनाओं में नीति और सदाचार के अनेक उपदेश दिए गए हैं। वे मनुष्यों को सत्य, अहिंसा, दया, और क्षमा जैसे मूल्यों के साथ जीने की शिक्षा देते हैं। 

अलंकार: 

अलंकारों का प्रयोग: पद्माकर अपनी रचनाओं में अनेक अलंकारों का कुशलतापूर्वक प्रयोग करते हैं। वे रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, यमक, श्लेष, आदि अलंकारों का प्रयोग करते हैं, जिससे उनकी रचनाओं में सौंदर्य और प्रभावशीलता बढ़ जाती है। 

अलंकारों की सार्थकता: पद्माकर के अलंकार केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि भावों को व्यक्त करने और विचारों को स्पष्ट करने के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। 

अलंकारों की नवीनता: पद्माकर ने अनेक नवीन अलंकारों का भी प्रयोग किया है, जो उनकी रचनाओं को और अधिक विशिष्ट बनाते हैं। 

उदाहरण: 

भाषा: 

"कहिअत विद्यापति, मधुबन मधुपुर, मधुकर मधुमय।" 

"तेरे मधुर मुरली ध्वनि सुनि, मोरे मन डोलै।" 

भाव: 

शृंगार: 

"कंचन कटि, कर मंगल, मुख ससि किरण ज्योति।" 

"प्रेम पिया मिलन काहे नहिं आवत।" 

भक्ति: 

"जतन करिहौं मधु मधुवन, मधुकर मधुमय।" 

"हरि के चरण सरोज धरि, जिय तन हारै जाय।" 

अलंकार: 

रूपक: "प्रेम पिया मिलन काहे नहिं आवत, ज्यौं मधुबन मधुकर नहिं आवत।" 

उपमा: "तेरी अंखियन तीर मारति, ज्यौं मधुबन के मधुकर।" 

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(ख) सूर द्वारा चित्रित स्वच्छंद प्रेम 

सूरदास, जिन्हें "भक्ति रस का सम्राट" भी कहा जाता है, 16वीं शताब्दी के महान भक्त कवि थे। उनकी रचनाओं में राधा-कृष्ण के प्रेम का अद्भुत चित्रण मिलता है। सूरदास का प्रेम स्वच्छंद, निर्भीक, और अलौकिक है। 

स्वच्छंद प्रेम की विशेषताएं: 

  • सामाजिक बंधनों से मुक्त: सूरदास का प्रेम सामाजिक बंधनों और रूढ़ियों से मुक्त है। राधा और कृष्ण समाज के नियमों की परवाह किए बिना अपना प्रेम व्यक्त करते हैं। 

  • निर्भीक प्रेम: सूरदास का प्रेम निर्भीक और स्पष्ट है। राधा और कृष्ण अपने प्रेम को छिपाने की कोशिश नहीं करते हैं, बल्कि खुलेआम व्यक्त करते हैं। 

  • अलौकिक प्रेम: सूरदास का प्रेम अलौकिक और दिव्य है। राधा और कृष्ण का प्रेम केवल भौतिक आकर्षण तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्माओं का मिलन है। 

उदाहरण: 

  • सामाजिक बंधनों से मुक्त: 

  • "जो तू तजैहै मोहि, मरजैहौं तुरतैयां।" 

  • "सबै जग जाने, हम तौ जानैहैं।" 

निर्भीक प्रेम: 

  • "अब तो डरपै नहिं डरपै, डरपै नहिं डरपै।" 

  • "हमहिं तू राधा राधा तूहिं हम।" 

अलौकिक प्रेम: 

  • "जिय तन मन सब देत है, गोपी देत है गोपी।" 

  • "प्रेम बंधन गोपिन के, नहिं छूटै छिन।" 

सूरदास के स्वच्छंद प्रेम का महत्व: 

प्रेम की सच्ची भावना: सूरदास का स्वच्छंद प्रेम हमें सिखाता है कि प्रेम सच्चा और निर्भीक होता है। प्रेम के लिए किसी भी बंधन या रूढ़ि का त्याग करने में संकोच नहीं करना चाहिए। 

आत्म-समर्पण: सूरदास का प्रेम हमें आत्म-समर्पण का महत्व सिखाता है। प्रेम में हमें अपना सब कुछ प्रियतम को अर्पित कर देना चाहिए। 

आध्यात्मिक प्रेम: सूरदास का प्रेम हमें यह समझने में मदद करता है कि सच्चा प्रेम केवल भौतिक आकर्षण तक सीमित नहीं है, बल्कि आत्माओं का मिलन है। 

निष्कर्ष: 

सूरदास द्वारा चित्रित स्वच्छंद प्रेम हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण योगदान है। यह हमें सिखाता है कि प्रेम सच्चा, निर्भीक, और अलौकिक होता है। सूरदास का प्रेम हमें प्रेम की सच्ची भावना, आत्म-समर्पण, और आध्यात्मिक प्रेम का महत्व समझने में मदद करता है। 

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