100% Free IGNOU BPSC-104 Solved Assignment 2024-25 Pdf / hardcopy

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निम्न वर्णनात्मक श्रेणी प्रश्नों के उत्तर लगभग 500 शब्दों (प्रत्येक) में दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 20 अंकों का है। 

1) लोकतंत्र और राजनीतिक दलों के मध्य संबंधों की व्याख्या कीजिए। 

लोकतंत्र और राजनीतिक दलों के बीच संबंध एक जटिल और महत्वपूर्ण विषय है, क्योंकि राजनीतिक दल लोकतंत्र के आधारभूत अंग होते हैं। लोकतंत्र में जनता की इच्छाओं और विचारों को सही तरीके से प्रतिनिधित्व करने के लिए राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

लोकतंत्र का परिभाषा और महत्व: 

लोकतंत्र एक ऐसा शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित होती है। इसमें दो प्रमुख तत्व होते हैं: एक ओर, जनता का अधिकार होता है कि वे अपने नेताओं का चुनाव करें, और दूसरी ओर, निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की इच्छाओं और जरूरतों के अनुसार नीतियाँ बनाते हैं और कार्यान्वित करते हैं। लोकतंत्र में स्वतंत्रता, समानता और न्याय की अवधारणाएं केंद्रीय होती हैं। 

राजनीतिक दलों की भूमिका: 

राजनीतिक दल लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण घटक हैं। ये दल विभिन्न विचारधाराओं, उद्देश्यों और नीतियों के आधार पर गठित होते हैं। इनके द्वारा विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाता है। राजनीतिक दल लोकतंत्र की संजीवनी शक्ति होते हैं, क्योंकि वे चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से सत्ता में आने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं और जनता के मुद्दों को संसद और अन्य सरकारी संस्थानों में उठाते हैं। 

प्रस्तावना और चुनावी प्रक्रिया: 

राजनीतिक दल चुनावी प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा होते हैं। ये दल चुनावों में उम्मीदवार खड़े करते हैं और मतदाताओं को अपनी नीतियों और योजनाओं से प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। दलों की चुनावी रणनीतियाँ, प्रचार, और जनसंपर्क गतिविधियाँ लोकतंत्र की गतिशीलता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। 

नीतियों का निर्माण: 

राजनीतिक दल विभिन्न मुद्दों पर नीतियाँ और कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। ये नीतियाँ सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान प्रदान करने के लिए बनाई जाती हैं। दलों की नीतियाँ अक्सर उनके विचारधारा, आदर्शों और जनहित में किए गए शोध के आधार पर होती हैं। जब एक दल सत्ता में आता है, तो उसकी नीतियाँ और कार्यक्रम सरकार की दिशा को निर्धारित करते हैं। 

प्रतिनिधित्व और जनसंपर्क: 

राजनीतिक दल जनता के विभिन्न वर्गों और हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये दल जनता की समस्याओं को पहचानते हैं और उनकी समस्याओं को समाधान प्रदान करने के लिए प्रयासरत रहते हैं। दलों के माध्यम से ही जनता अपनी आवाज सरकार तक पहुंचा पाती है। 

लोकतंत्र की समीक्षा और आलोचना: 

राजनीतिक दल केवल सत्ता में आने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, बल्कि वे सत्ता में आई सरकार की आलोचना भी करते हैं। विपक्षी दल सरकार की नीतियों और निर्णयों की समीक्षा करते हैं और जनहित में सुधार की मांग करते हैं। यह लोकतंत्र की एक स्वस्थ प्रक्रिया है, जो सत्ता के दुरुपयोग को रोकने में मदद करती है। 

संगठन और प्रशिक्षण: 

राजनीतिक दलों का संगठन और प्रशिक्षण भी लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है। दल अपने सदस्यों को राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक मुद्दों पर प्रशिक्षित करते हैं ताकि वे बेहतर प्रतिनिधि बन सकें। 

निष्कर्ष: 

लोकतंत्र और राजनीतिक दलों के बीच का संबंध अनिवार्य और गहरा है। राजनीतिक दल लोकतंत्र की नींव हैं और इसकी कार्यप्रणाली को संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे चुनावी प्रक्रिया, नीति निर्माण, और जनसंपर्क के माध्यम से लोकतंत्र को स्थिर और सक्रिय बनाए रखते हैं। साथ ही, वे आलोचना और सुधार के माध्यम से लोकतंत्र को निरंतर विकसित और सुधारित करते हैं। इस प्रकार, लोकतंत्र और राजनीतिक दलों के बीच का संबंध एक-दूसरे को समर्थन और समृद्धि प्रदान करता है। 

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2)भारत में राज्यों के पुर्ननिर्माण के लिए निर्धारित संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा कीजिए। 

भारत में राज्यों के पुनर्निर्माण और पुनर्विन्यास के लिए संवैधानिक प्रावधान भारतीय संविधान के तहत निर्धारित किए गए हैं। राज्यों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में राज्यों की सीमाओं का परिवर्तन, नए राज्यों का गठन, और मौजूदा राज्यों के पुनर्गठन शामिल हो सकते हैं। इस संदर्भ में भारतीय संविधान में विभिन्न प्रावधान और प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई हैं जो राज्यों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को सुचारू और कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त बनाती हैं। 

संवैधानिक प्रावधान: 

अनुच्छेद 1 और 2: 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 और 2 भारत के संघीय स्वरूप और राज्यों की सीमा निर्धारण से संबंधित हैं। अनुच्छेद 1 (1) भारत को एक संघात्मक गणराज्य के रूप में परिभाषित करता है और अनुच्छेद 1 (2) राज्यों की सूची और उनके सीमा निर्धारण को संबोधित करता है। अनुच्छेद 2 में भारतीय संविधान की संविधान सभा को नए राज्यों के गठन और राज्यों के पुनर्निर्माण की शक्ति प्रदान की गई है। 

अनुच्छेद 3: 

अनुच्छेद 3 राज्यों के पुनर्निर्माण, विभाजन, और नामकरण से संबंधित प्रावधानों को निर्धारित करता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख बिंदु आते हैं: 

अनुच्छेद 3(1): संसद को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह एक राज्य की सीमा को बदल सकती है, नए राज्यों का गठन कर सकती है, या किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकती है। 

अनुच्छेद 3(2): इसके तहत संसद को राज्यों की सीमाओं, क्षेत्रों, और नाम के परिवर्तनों पर विचार करने से पहले संबंधित राज्यों और उनके प्रतिनिधियों से सलाह लेने की आवश्यकता होती है। 

अनुच्छेद 3(3): इसके अंतर्गत, नए राज्य के गठन या राज्यों की सीमा के परिवर्तन के समय, संसद को यह अधिकार है कि वह नई राज्य सरकारों के गठन, और उन राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था को नियंत्रित कर सके। 

अनुच्छेद 4: 

अनुच्छेद 4 राज्यों के पुनर्निर्माण और नई राज्यों के गठन के बाद हुए संविधान में संशोधन को परिभाषित करता है। इसके अंतर्गत, जब कोई भी ऐसा कानून बनता है जो राज्यों के पुनर्निर्माण या उनके नाम में परिवर्तन से संबंधित हो, तो उसे संविधान में संशोधन के रूप में माना जाएगा। इस अनुच्छेद के तहत, इस प्रकार के कानून के लिए राष्ट्रपति की सहमति की आवश्यकता होती है और उसे संसद द्वारा पारित किया जाना आवश्यक होता है। 

राज्यों के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया: 

संसदीय प्रस्ताव: 

राज्यों के पुनर्निर्माण के लिए, सबसे पहले एक प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत किया जाता है। यह प्रस्ताव आमतौर पर गृह मंत्रालय या संबंधित मंत्रालय द्वारा तैयार किया जाता है और इसमें नए राज्यों के गठन, मौजूदा राज्यों की सीमाओं के परिवर्तन, और अन्य संबंधित मुद्दों को संबोधित किया जाता है। 

आवश्यक संवैधानिक संशोधन: 

राज्यों के पुनर्निर्माण के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन किया जाता है। यह संशोधन संसद द्वारा पारित किया जाता है और राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त करता है। इस प्रक्रिया में अनुच्छेद 368 के तहत संविधान की कुछ धाराओं को संशोधित किया जा सकता है। 

संबंधित राज्यों और क्षेत्रीय प्रतिनिधियों की सलाह: 

अनुच्छेद 3(2) के अनुसार, संसद को संबंधित राज्यों और उनके प्रतिनिधियों से सलाह लेने की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि राज्यों के पुनर्निर्माण से पहले स्थानीय जनसंख्या और उनके प्रतिनिधियों की राय को ध्यान में रखा जाए। 

कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ: 

नए राज्यों के गठन या मौजूदा राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन के बाद, नई प्रशासनिक व्यवस्थाएँ स्थापित की जाती हैं। इसमें नए राज्य की राजधानी का निर्धारण, प्रशासनिक ढांचे का गठन, और अन्य आवश्यक व्यवस्थाएँ शामिल होती हैं। 

पार्लियामेंटरी प्रक्रिया: 

इस प्रक्रिया के अंतर्गत, प्रस्तावित विधेयक संसद के दोनों सदनोंलोकसभा और राज्यसभामें पेश किया जाता है। विधेयक पर चर्चा और मतदान के बाद, इसे राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति की सहमति के बाद, यह विधेयक कानून के रूप में लागू हो जाता है। 

उदाहरण: 

भारतीय संविधान के तहत राज्यों के पुनर्निर्माण के कई उदाहरण रहे हैं, जैसे: 

छत्तीसगढ़ का गठन (2000): छत्तीसगढ़ का गठन मध्यप्रदेश से अलग करके किया गया। इस प्रक्रिया के तहत, छत्तीसगढ़ को नया राज्य बनाया गया और इसका गठन भारतीय संविधान की संबंधित धाराओं के अनुसार किया गया। 

झारखंड का गठन (2000): झारखंड को बिहार से अलग करके नया राज्य बनाया गया। यह प्रक्रिया भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 और 4 के अंतर्गत पूरी की गई। 

उत्तराखंड का गठन (2000): उत्तराखंड को उत्तरप्रदेश से अलग करके नया राज्य बनाया गया। इस प्रक्रिया के दौरान, संवैधानिक संशोधन और पार्लियामेंटरी प्रक्रिया का पालन किया गया। 

निष्कर्ष: 

भारतीय संविधान में राज्यों के पुनर्निर्माण के लिए स्थापित संवैधानिक प्रावधान लोकतंत्र और संघीय ढांचे को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। अनुच्छेद 1, 2, 3, और 4 के अंतर्गत निर्धारित प्रक्रियाएँ यह सुनिश्चित करती हैं कि राज्यों के पुनर्निर्माण का कार्य सुव्यवस्थित, कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त, और पारदर्शी तरीके से किया जाए। इन प्रावधानों का पालन करके भारतीय संघीय प्रणाली को सुदृढ़ और समर्पित तरीके से विकसित किया जाता है। 

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सत्रीय कार्य - II 

निम्न मध्यम श्रेणी प्रश्नों के उत्तर लगभग 250 शब्दों (प्रत्येक) में दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 10 अंकों का है। 

1.भारत में विभिन्न समूहों के लिए प्रस्तावित आरक्षण नीतियों की व्याख्या कीजिए। 

भारत में विभिन्न समूहों के लिए आरक्षण नीतियाँ समाज की सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाई गई हैं। ये नीतियाँ मुख्यतः अनुसूचित जातियाँ (SCs), अनुसूचित जनजातियाँ (STs), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), और महिलाओं के लिए आरक्षण को संबोधित करती हैं। 

अनुसूचित जातियाँ (SCs) और अनुसूचित जनजातियाँ (STs): भारत में SCs और STs के लिए आरक्षण नीति का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को कम करना है। संविधान के अनुच्छेद 15 और 46 के तहत, SCs और STs को सरकारी नौकरियों, शिक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवाओं में आरक्षण प्रदान किया जाता है। वर्तमान में, SCs के लिए 15% और STs के लिए 7.5% आरक्षण की व्यवस्था है। 

अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs): OBCs के लिए आरक्षण की व्यवस्था 1990 के दशक में शुरू की गई। संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत, OBCs को शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण प्रदान किया जाता है। यह आरक्षण उन वर्गों के लिए है जिन्हें सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर चयनित किया गया है। 

महिलाओं के लिए आरक्षण: महिलाओं के लिए आरक्षण नीति विभिन्न स्तरों पर लागू होती है। संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की सिफारिश की गई है, हालांकि इसे संविधान (108वां संशोधन) बिल के माध्यम से कानून में परिवर्तित किया जाना अभी भी लंबित है। इसके अलावा, स्थानीय निकायों जैसे पंचायतों और नगर निगमों में भी महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है। 

इन आरक्षण नीतियों का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को कम करना और विभिन्न समूहों को समान अवसर प्रदान करना है। 

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2)मतदान व्यवहार क्या है? मतदान व्यवहार के विभिन्न प्रकार क्या है? 

मतदान व्यवहार (Voting Behavior) से तात्पर्य है उन प्रक्रियाओं और निर्णयों से जो मतदाता चुनावों में मतदान करते समय अपनाते हैं। यह अध्ययन करता है कि मतदाता किस आधार पर मतदान करते हैं, जैसे कि पार्टी की विचारधारा, व्यक्तिगत मुद्दे, या चुनावी प्रचार। मतदान व्यवहार को समझना लोकतंत्र की कार्यप्रणाली और चुनावी परिणामों की भविष्यवाणी के लिए महत्वपूर्ण है। 

मतदान व्यवहार के विभिन्न प्रकार: 

पार्टी-आधारित मतदान (Party-based Voting): यह सबसे सामान्य प्रकार का मतदान व्यवहार है, जिसमें मतदाता अपनी पसंदीदा राजनीतिक पार्टी के आधार पर मतदान करते हैं। मतदाता पार्टी के विचारधारा, कार्यक्रम, और नेताओं की स्थिति को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेते हैं। 

उम्मीदवार-आधारित मतदान (Candidate-based Voting): इसमें मतदाता व्यक्तिगत उम्मीदवार की योग्यता, चरित्र, और उनके द्वारा प्रस्तुत नीतियों को प्राथमिकता देते हैं। मतदाता उम्मीदवार की व्यक्तिगत विशेषताओं और उनके पिछले कार्यों को ध्यान में रखते हुए मतदान करते हैं। 

समस्या-आधारित मतदान (Issue-based Voting): इस प्रकार के मतदान में मतदाता विशिष्ट मुद्दों या नीतियों के आधार पर मतदान करते हैं। जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, या आर्थिक मुद्दे। मतदाता उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो उन्हें सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं और जिनके समाधान के लिए उन्हें पार्टी या उम्मीदवार पर विश्वास होता है। 

अनुग्रह मतदान (Protest Voting): इसमें मतदाता मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था या नेताओं के खिलाफ विरोध जताने के लिए मतदान करते हैं। ये मतदाता आमतौर पर विकल्प के रूप में छोटे या नये दलों को वोट देते हैं जो पारंपरिक दलों के प्रति असंतोष व्यक्त करते हैं। 

सामाजिक या सांस्कृतिक मतदान (Social/Cultural Voting): इसमें मतदाता अपनी जाति, धर्म, या समुदाय के आधार पर मतदान करते हैं। यह व्यवहार अक्सर सामाजिक पहचान और सांस्कृतिक संबंधों पर आधारित होता है। 

ये विभिन्न प्रकार के मतदान व्यवहार एक चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं और यह समझना कि कौन सा प्रकार प्रमुख है, चुनावी रणनीतियों और परिणामों की भविष्यवाणी के लिए महत्वपूर्ण होता है। 

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3) गठबंधन राजनीति के उद्भव के कारकों का विश्लेषण कीजिए। 

गठबंधन राजनीति के उद्भव के कारक 

परिचय: गठबंधन राजनीति वह प्रणाली है जिसमें विभिन्न राजनीतिक दल एक साझा मंच पर आते हैं ताकि वे मिलकर सत्ता प्राप्त कर सकें या नीति निर्माण कर सकें। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में गठबंधन राजनीति का उद्भव कई कारकों का परिणाम है, जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों से जुड़े हुए हैं। इस लेख में हम गठबंधन राजनीति के उद्भव के प्रमुख कारकों का विश्लेषण करेंगे। 

1. संघीय और विविधतापूर्ण समाज: 

भारत एक संघीय देश है, जिसमें विभिन्न राज्य और क्षेत्रीय पहचानें मौजूद हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता के कारण, अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों में विभिन्न दल और विचारधाराएं विकसित हुई हैं। इन विविधताओं को ध्यान में रखते हुए, किसी एक पार्टी के लिए सभी राज्यों और क्षेत्रों में सत्ता स्थापित करना कठिन हो जाता है। इस परिदृश्य में, गठबंधन राजनीति एक ऐसा तंत्र बन जाती है जो विभिन्न क्षेत्रीय दलों और विचारधाराओं को एक साथ लाकर सत्ता में योगदान करती है। 

2. भारतीय चुनावी प्रणाली: 

भारत की चुनावी प्रणाली में 'पहले पास पोस्ट' (First-Past-The-Post) प्रणाली अपनाई जाती है, जिसमें किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार को सबसे अधिक वोट प्राप्त करने पर जीत मिलती है। इस प्रणाली के तहत, एक पार्टी को अधिकांश सीटें प्राप्त करने के लिए व्यापक समर्थन की आवश्यकता होती है। इस कारण, कई बार कोई भी एकल पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त करने में विफल रहती है, और गठबंधन राजनीति की आवश्यकता उत्पन्न होती है। 

3. पार्टी संरचनाएं और विचारधाराएँ: 

भारतीय राजनीति में विभिन्न दलों की विचारधाराएँ और संरचनाएं विविध हैं। जैसे कि कांग्रेस पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (भा..पा.), और क्षेत्रीय दलों की विभिन्न विचारधाराएँ और प्राथमिकताएँ हैं। जब कोई पार्टी बहुमत में नहीं पाती है, तो विभिन्न विचारधाराओं वाले दल एक साथ आकर गठबंधन बनाते हैं ताकि वे सरकार बना सकें और नीति निर्धारण कर सकें। 

4. राजनीतिक अस्थिरता और गुटबाजी: 

भारतीय राजनीति में अक्सर अस्थिरता और गुटबाजी देखने को मिलती है। विभिन्न दलों के बीच मतभेद और आंतरिक गुटबाजी के कारण, एकल पार्टी के लिए स्थिर सरकार चलाना कठिन हो जाता है। इस अस्थिरता को स्थिरता में बदलने के लिए गठबंधन राजनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि विभिन्न दल मिलकर एक साझा सरकार का गठन कर सकते हैं और स्थिरता सुनिश्चित कर सकते हैं। 

5. चुनावी लाभ और समीकरण: 

चुनावों के दौरान गठबंधन राजनीति का एक प्रमुख कारण चुनावी लाभ और समीकरण भी है। कई बार, छोटे दल या क्षेत्रीय दल अपने समर्थन से बड़े दलों को चुनाव जीतने में मदद करते हैं। इसके बदले में, वे गठबंधन में शामिल होने के बाद, अपने मुद्दों और नीतियों को लागू करने का अवसर प्राप्त करते हैं। यह राजनीतिक लाभ और समीकरण गठबंधन राजनीति को प्रोत्साहित करते हैं। 

6. सशक्त क्षेत्रीय दलों की भूमिका: 

भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ती जा रही है। ये दल स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत बन चुके हैं। जब कोई राष्ट्रीय पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं कर पाती, तो क्षेत्रीय दल गठबंधन में शामिल होकर अपनी शक्ति और प्रभाव का उपयोग करते हैं। इन क्षेत्रीय दलों की उपस्थिति और उनके स्थानीय मुद्दों को संबोधित करना गठबंधन राजनीति के विकास में योगदान देता है। 

7. सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन: 

समाज और अर्थव्यवस्था में समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों के कारण भी गठबंधन राजनीति का उद्भव हुआ है। जैसे-जैसे समाज में सामाजिक न्याय, आरक्षण, और विकास के मुद्दे महत्वपूर्ण होते गए हैं, विभिन्न दल इन मुद्दों पर एकजुट होकर गठबंधन बनाते हैं। इससे विभिन्न सामाजिक और आर्थिक वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है और व्यापक समर्थन प्राप्त होता है। 

8. अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव और वैश्वीकरण: 

वैश्वीकरण और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव भी गठबंधन राजनीति के उद्भव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वैश्विक परिदृश्य में, विभिन्न देशों में गठबंधन राजनीति का अभ्यास होता है, और भारत में भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, जैसे कि संयुक्त राष्ट्र, और वैश्विक व्यापार समझौतों के कारण, राष्ट्रीय राजनीति में भी गठबंधन और सहयोग की आवश्यकता महसूस की जाती है। 

निष्कर्ष: 

गठबंधन राजनीति का उद्भव भारत में कई कारकों के संयोजन का परिणाम है, जिसमें संघीय संरचना, चुनावी प्रणाली, पार्टी संरचनाएँ, राजनीतिक अस्थिरता, चुनावी लाभ, क्षेत्रीय दलों की भूमिका, सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन, और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव शामिल हैं। इन कारकों के चलते, गठबंधन राजनीति भारतीय लोकतंत्र का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है, जो विभिन्न विचारधाराओं और दलों को एक साथ लाकर स्थिरता और सहयोग की दिशा में काम करती है। 

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सत्रीय कार्य III 

निम्न लघु श्रेणी प्रश्नों के उत्तर लगभग 100 शब्दों (प्रत्येक) में दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 6 अंकों का है। 

1)गठबंधन सरकार क्या हैं? 

गठबंधन सरकार वह सरकार होती है जिसमें विभिन्न राजनीतिक दल मिलकर एक साझा प्रशासन चलाते हैं, क्योंकि कोई एकल पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं कर पाती। यह स्थिति आमतौर पर तब उत्पन्न होती है जब चुनाव में किसी पार्टी को पर्याप्त सीटें नहीं मिलतीं और विभिन्न दल एक साथ मिलकर सरकार का गठन करते हैं। गठबंधन सरकार में सभी सहभागी दल अपनी नीतियों और मुद्दों पर सहमति बनाते हैं और साझा नेतृत्व के तहत काम करते हैं। इसका उद्देश्य एक स्थिर सरकार प्रदान करना होता है, जो विभिन्न विचारधाराओं और जनहित को ध्यान में रखते हुए निर्णय ले सके 

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2) चुनावी राजनीति में धर्म की भूमिका की जाँच कीजिए। 

चुनावी राजनीति में धर्म का प्रभाव भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद मुद्दा है। धर्म ने चुनावी राजनीति को विभिन्न तरीकों से प्रभावित किया है, जिससे चुनावी रणनीतियों, मतदाता व्यवहार और पार्टी प्राथमिकताओं पर व्यापक असर पड़ा है। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से धर्म की भूमिका की जाँच की जा सकती है: 

मतदाता व्यवहार और धार्मिक ध्रुवीकरण: धर्म अक्सर मतदाता व्यवहार को प्रभावित करता है। विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच चुनावी ध्रुवीकरण की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जिसमें उम्मीदवार या पार्टी धार्मिक पहचान को मुद्दा बनाकर समर्थन प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। यह ध्रुवीकरण विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच सामाजिक और राजनीतिक तनाव को बढ़ा सकता है। 

राजनीतिक दलों की रणनीतियाँ: कई राजनीतिक दल धार्मिक मुद्दों को अपने चुनावी अभियानों में शामिल करते हैं। वे धर्म के आधार पर समुदायों को लक्षित करके वोट बटोरने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ दल हिंदू वोटों को आकर्षित करने के लिए हिंदू धर्म की बात करते हैं, जबकि अन्य दल मुस्लिम या अन्य धार्मिक समूहों के अधिकारों की रक्षा का आश्वासन देते हैं। 

धार्मिक तुष्टीकरण: चुनावी राजनीति में धार्मिक तुष्टीकरण एक सामान्य रणनीति है, जिसमें दल या उम्मीदवार धार्मिक समूहों को विशेष लाभ या योजनाओं का आश्वासन देते हैं। यह तुष्टीकरण धार्मिक समूहों के बीच समर्थन प्राप्त करने के लिए किया जाता है, लेकिन यह कभी-कभी समाज में विभाजन भी पैदा कर सकता है। 

धार्मिक आधार पर उम्मीदवारों की चयन: कुछ चुनावों में धार्मिक आधार पर उम्मीदवारों का चयन किया जाता है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों को धार्मिक आधार पर चुन सकते हैं ताकि वे विशेष धार्मिक समुदायों के समर्थन को आकर्षित कर सकें। यह चुनावी मैदान में धर्म को एक महत्वपूर्ण कारक बना देता है। 

धार्मिक मुद्दों का चुनावी विमर्श: धार्मिक मुद्दे अक्सर चुनावी विमर्श का हिस्सा बनते हैं। राजनीति में धार्मिक विवाद, जैसे मंदिर-मस्जिद विवाद या धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दे, चुनावों में प्रमुख रूप से उठाए जाते हैं। इससे चुनावी विमर्श धार्मिक दृष्टिकोण से प्रभावित होता है और मतदाताओं की प्राथमिकताओं पर असर डालता है। 

धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र: भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता की मूलधारा को मान्यता देता है, जिसका मतलब है कि सरकार को सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखना चाहिए। लेकिन चुनावी राजनीति में धर्म की भूमिका से इस सिद्धांत को चुनौती मिलती है। धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए चुनावी प्रक्रियाओं और दलों की जिम्मेदारी होती है कि वे धार्मिक आधार पर राजनीति से बचें। 

निष्कर्ष: धर्म की भूमिका चुनावी राजनीति में जटिल और बहुआयामी होती है। यह मतदाता व्यवहार, दलों की रणनीतियों, और चुनावी विमर्श को प्रभावित करता है, और कभी-कभी समाज में विभाजन पैदा कर सकता है। हालांकि, भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करता है, चुनावी राजनीति में धर्म की उपस्थिति लोकतंत्र की मूलभूत सिद्धांतों के लिए चुनौती पेश कर सकती है। 

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3.स्वायत्तता आंदोलनों की विशेषतायें क्या हैं? 

स्वायत्तता आंदोलन उन आंदोलनों को संदर्भित करते हैं जो एक क्षेत्रीय, सांस्कृतिक, या सामाजिक इकाई को स्वायत्तता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। इन आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य स्थानीय स्तर पर अधिक स्वायत्तता और आत्मनिर्णय का अधिकार प्राप्त करना होता है। स्वायत्तता आंदोलनों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं: 

स्थानीय स्वायत्तता की माँग: स्वायत्तता आंदोलन स्थानीय या क्षेत्रीय इकाइयों द्वारा केंद्र सरकार या केंद्रीय अधिकारियों से अधिक स्वायत्तता प्राप्त करने की मांग करता है। ये आंदोलन अक्सर उन क्षेत्रों में होते हैं जिनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, या आर्थिक विशिष्टताएँ होती हैं और जो महसूस करते हैं कि उनकी विशिष्टताओं को पूरी तरह से मान्यता नहीं मिल रही है। 

सांस्कृतिक और भाषाई पहचान: स्वायत्तता आंदोलनों में सांस्कृतिक या भाषाई पहचान को बनाए रखने की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। क्षेत्रीय सांस्कृतिक और भाषाई विविधता की रक्षा के लिए इन आंदोलनों में शामिल लोग अपने अद्वितीय सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को मान्यता और समर्थन की मांग करते हैं। 

राजनीतिक और प्रशासनिक सुधार: इन आंदोलनों में आमतौर पर राजनीतिक और प्रशासनिक सुधार की माँग होती है, जैसे कि स्थानीय सरकारों को अधिक शक्तियाँ देना, स्थानीय संसाधनों का नियंत्रण बढ़ाना, और स्थानीय प्रशासन की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना। ये सुधार स्थानीय लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अधिक स्वायत्तता प्रदान करते हैं। 

स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की इच्छाएँ: कई स्वायत्तता आंदोलन स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय की भी इच्छा व्यक्त करते हैं। कुछ आंदोलन पूरी स्वतंत्रता की माँग करते हैं, जबकि अन्य सीमित स्वायत्तता प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। यह आंदोलन क्षेत्रीय या सांस्कृतिक स्वायत्तता की दिशा में किए गए प्रयासों को दर्शाते हैं। 

सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ: स्वायत्तता आंदोलनों के पीछे अक्सर सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का विरोध होता है। इन आंदोलनों में शामिल लोग मानते हैं कि केंद्रीय शासन या प्रशासन उनके क्षेत्र के सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को सही तरीके से नहीं समझता और उनकी समस्याओं को ठीक से नहीं सुलझाता है। 

सहयोग और संघर्ष: स्वायत्तता आंदोलनों में सहयोग और संघर्ष दोनों की विशेषताएँ हो सकती हैं। कभी-कभी आंदोलन शांतिपूर्ण संवाद और वार्ता के माध्यम से स्वायत्तता प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, जबकि अन्य समय में संघर्ष और विरोध के माध्यम से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। 

इन विशेषताओं के माध्यम से स्वायत्तता आंदोलन स्थानीय स्वायत्तता और आत्मनिर्णय के अधिकार को बढ़ावा देते हैं और सामाजिक, सांस्कृतिक, और राजनीतिक सुधार की दिशा में काम करते हैं। 

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4.विद्रोह (Insurgency) को परिभाषित कीजिए। यह उग्रवाद से किस प्रकार भिन्न है? 

विद्रोह एक ऐसा संघर्ष होता है जिसमें एक समूह या आंदोलन सरकार या केंद्रीय शक्ति के खिलाफ सशस्त्र या असशस्त्र तरीके से विरोध करता है। यह आमतौर पर सरकार के प्रति असंतोष, सामाजिक असमानताओं, या क्षेत्रीय समस्याओं के कारण उत्पन्न होता है। विद्रोह का उद्देश्य अक्सर सत्ता को चुनौती देना और परिवर्तन लाना होता है। इसमें विद्रोही ताकतें आमतौर पर सरकार के नियंत्रण को अस्वीकार करती हैं और एक वैकल्पिक शासन व्यवस्था या सुधार की मांग करती हैं। 

उग्रवाद (Terrorism) की परिभाषा: 

उग्रवाद एक ऐसी हिंसात्मक रणनीति है जिसका उद्देश्य समाज में डर और आतंक फैलाना होता है। उग्रवादी समूह सामान्यत: असैनिकों, सरकारी संस्थानों, और अन्य गैर-सैन्य लक्ष्यों को निशाना बनाते हैं ताकि व्यापक भय और अस्थिरता पैदा की जा सके। उग्रवाद का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक, धार्मिक, या सामाजिक उद्देश्यों को बलपूर्वक लागू करना होता है। 

विद्रोह और उग्रवाद के बीच भिन्नता: 

उद्देश्य और लक्ष्य: 

विद्रोह: विद्रोह का मुख्य उद्देश्य आमतौर पर सत्ता को चुनौती देना और परिवर्तन लाना होता है। विद्रोही समूह सत्ता की संरचना को बदलने या एक नई शासन व्यवस्था स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं। 

उग्रवाद: उग्रवाद का उद्देश्य समाज में भय और आतंक फैलाना होता है। उग्रवादी समूह असैनिकों और नागरिक लक्ष्यों पर हमले करके व्यापक डर उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। 

संगठन और रणनीति: 

विद्रोह: विद्रोहियों का संगठन आमतौर पर एक संगठनात्मक संरचना और उद्देश्य पर आधारित होता है। वे अक्सर सैन्य या असैनिक लक्ष्यों के खिलाफ संघर्ष करते हैं और लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष की रणनीति अपनाते हैं। 

उग्रवाद: उग्रवादी समूह अक्सर छोटे, अधिक लचीले और गुप्त संगठन होते हैं जो तात्कालिक और विभाजनकारी हमलों की रणनीति अपनाते हैं। उनकी गतिविधियाँ हिंसा और आतंक फैलाने के लिए होती हैं। 

लक्ष्य समूह: 

विद्रोह: विद्रोह में आमतौर पर विद्रोही ताकतें सरकार या सत्ताधारी वर्ग को लक्षित करती हैं। संघर्ष का केंद्र सरकार या सरकारी संस्थानों पर होता है। 

उग्रवाद: उग्रवादी हमले आमतौर पर नागरिकों, सार्वजनिक स्थानों, और अन्य असैनिक लक्ष्यों पर होते हैं। इसका उद्देश्य सामान्य जनसमूह में डर और अस्थिरता पैदा करना होता है। 

वैधता और स्वीकार्यता: 

विद्रोह: विद्रोह कभी-कभी राजनीतिक रूप से वैध या स्वीकार्य माना जा सकता है यदि यह स्वतंत्रता संग्राम या जनसाधारण के अधिकारों की रक्षा के लिए होता है। 

उग्रवाद: उग्रवाद को सामान्यतः अपराध और अस्वीकार्य माना जाता है क्योंकि इसमें निर्दोष लोगों पर हिंसात्मक हमले किए जाते हैं और सामाजिक शांति को भंग किया जाता है। 

निष्कर्ष: 

विद्रोह और उग्रवाद दोनों ही संघर्ष की विधियाँ हैं, लेकिन उनके उद्देश्य, रणनीतियाँ, और लक्षित समूह भिन्न होते हैं। विद्रोह मुख्य रूप से सत्ता को चुनौती देने और सामाजिक-राजनीतिक बदलाव लाने के लिए होता है, जबकि उग्रवाद समाज में भय और आतंक फैलाने के लिए होता है। इन दोनों में से प्रत्येक की विशेषताएँ और परिणाम भिन्न होते हैं, जो उनके प्रभाव और समाधान की रणनीतियों को प्रभावित करते हैं।

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5.कल्याणकारी योजनाओं के सम्मुख प्रमुख चुनौतियों क्या है? 

कल्याणकारी योजनाओं के सम्मुख प्रमुख चुनौतियाँ: 

  • संसाधनों की कमी: कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए आवश्यक वित्तीय और मानव संसाधनों की कमी होती है। बजट की सीमाओं और संसाधनों की अपर्याप्तता योजनाओं की सफलता को बाधित कर सकती है। 

  • प्रभावी कार्यान्वयन की कमी: अक्सर योजनाओं का कार्यान्वयन स्थानीय स्तर पर कमजोर होता है, जिससे लाभार्थियों को योजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पाता। प्रशासनिक अक्षमताएँ और भ्रष्टाचार भी कार्यान्वयन में बाधा डालते हैं। 

  • सामाजिक असमानता: सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के कारण योजनाओं का लाभ सही ढंग से वितरित नहीं हो पाता। गरीब और हाशिये पर रहने वाले समुदायों तक योजनाओं की पहुंच सीमित रहती है। 

  • जानकारी का अभाव: लाभार्थियों को योजनाओं के बारे में सही जानकारी और जागरूकता की कमी होती है। इस कारण, वे योजनाओं का पूरा लाभ नहीं उठा पाते हैं। 

इन चुनौतियों को दूर करने के लिए प्रभावी योजना और कार्यान्वयन, पारदर्शिता, और बेहतर जन जागरूकता की आवश्यकता होती है। 

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