सत्ता क्या है? सत्ता के साधनों
जो ईश्वर की
भावनाएं होती हैं,
जो ईश्वर की
स्थापनाएं होती हैं,
जो ईश्वर के
सारे उद्देश्य होते
हैं, ईश्वर जिन
भावनाओं से जुड़ा
होता है, जिन गुणों से
जुड़ा होता है,
जिन अच्छाइयों से
जुड़ा होता है,
वो सब संतों
में होती हैं।
संत के जीवन में समाज
भी यही खोजता
है कि संत में लोभ
नहीं हो, कामना-हीनता हो।
1- समाज संत में यह देखता है कि उसमें श्रेष्ठता है या नहीं, संयम है या नहीं। संत में दूसरों की भलाई करने की भावना है या नहीं। लोग संत में सभी गुण खोजते हैं। संतों को परखा जाता है। लोग यह नहीं देखते कि संत को गाड़ी चलाना आता है या नहीं, कम्प्यूटर चलाना आता है या नहीं, संत को प्रबंधन चलाना आता है या नहीं। संत हैं तो संतत्व होना चाहिए।
जो गुण, जो भाव, जो
उत्कर्ष, जो ग्रहणशीलता,
जो विशिष्टता ईश्वर
में पाई जाती
है, उन सभी भावों को
लोग लोकतंत्र में
खोजते हैं और संतों में
भी खोजते हैं।
लोग जब किसी में इन
गुणों को नहीं पाते हैं,
तब उसे ढोंगी
कहते हैं। ईश्वर
ने अपने प्रतिनिधि
के रूप में संतों को
भेजा है। उसके
सभी उद्देश्यों, सभी
इच्छाओं, सभी लीलाओं,
क्रियाओं, सभी व्यवस्थाओं
को संत जन समाज कल्याण
के लिए प्रयुक्त
करते हैं।
2- संत स्वयं को
केवल समाज के लिए नहीं,
बल्कि संपूर्ण विश्व
के लिए, केवल
मानवता के लिए ही नहीं,
अपितु संपूर्ण प्राणियों
के लिए समर्पित
कर सबके विकास
को गति देते
हैं। जैसे लोकतंत्र
प्रतिनिधि तंत्र है,
ठीक वैसे ही संतों का
समाज भी ईश्वर
का प्रतिनिधि तंत्र
है। उसके सभी
उद्देश्यों, इच्छाओं, लीलाओं व
क्रियाओं को संत
जन समाज कल्याण
के लिए प्रयुक्त
करते हैं।
संसार का जनक
संसार में आकार,
प्रकार, स्वभाव की
अथाह विविधता है।
जहां 84 लाख योनियों
की चर्चा की
जाती है। 84 लाख
योनियों के संपूर्ण
निर्माण का जो श्रेय है,
सनातन धर्म के अनुसार, सृष्टि जहां
भी हो, जैसी
भी हो, इस संपूर्ण सृष्टि का
निर्माता ईश्वर ही
है।
इतनी बड़ी सृष्टि
का संपादन कोई
मनुष्य नहीं कर सकता। न
समुद्र का, न हिमालय का,
न आकाश का,
न पृथ्वी का,
न वायु का,
न ग्रह-नक्षत्र
का। इसलिए यह
माना गया है और इसको
बार-बार वेद,
पुराण व स्मृतियों
में दोहराया गया
है कि संसार
को ईश्वर ही
बनाता है और पालन करता
है, वही उसका
पोषण करता है।
उसको सुंदर बनाता
है, उपयोगी बनाता
है, सुदृढ़ बनाता
है और जब कभी उसे
लगता है तो उस चीज
को अपने में
समाहित कर लेता है, इसी
को संहार कहते
हैं।
ईश्वर अपनी तरह
से सुधार करता
है। जैसे राजशाही
प्रथा की जो विकृतियां थीं, उनमें
से बहुत सी विकृतियों से समाज को छुटकारा
मिला। लोकतंत्र में
बहुत सी अच्छाइयां
हैं, जनता अपना
प्रतिनिधि चुनती है।
वैसे ही संसार
को बनाकर ईश्वर
ने वेदों, शास्त्रों
के रूप में नियम-कानून
भी बनाए कि जीवन में
कैसे चलना है,
कैसे रहना है,
किस तरह से विकास होगा,
किस तरह से व्यक्ति सही रहेगा।
संपूर्ण नियम-कानून
उसने बनाए और उसी आधार
पर संसार को
अच्छाई की ओर ले जाने
का मार्गदर्शन किया।
3- संत का उद्देश्य क्या हो? संसार में साधु-संतों का बड़ा काम है। संतों ने मानव समाज को ईश्वरीय ज्ञान से जोड़ा, संस्कारों से जोड़ा, जीवन जीने की कला से जोड़ा। विकास की तमाम क्रियाओं से जोड़ा और सबकुछ इतना अच्छा किया कि पूरा संसार उनकी ओर देखता है। ऐसे बड़े कामों के लिए, लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए संत का बड़ा अच्छा और वैसा ही सही स्वरूप होना चाहिए, जैसे ईश्वर के किसी प्रतिनिधि का होना चाहिए।
4- आज हमें यह जानना होगा
कि संत का सही स्वरूप
क्या होता है।
जब वह अपने ज्ञान द्वारा
ईश्वर को समझ लेता है,
अपनी भक्ति द्वारा
ईश्वर को प्राप्त
कर लेता है,
अपनी शरणागति द्वारा
ईश्वर को प्राप्त
कर लेता है और उसके
गुणों से युक्त
हो जाता है,
जब उसी तरह से अपने
संपूर्ण जीवन को संसार का
जीवन बना लेता
है, जब अपनी संपूर्ण इच्छाओं को
संसार की इच्छाओं
में डालकर विकास
के लिए प्रयास
करता है, तमाम
उपयोगी विविधताओं में
गुणों को डालकर
उनके विकास के
लिए प्रयास करता
है, तब उसको सही संत
का दर्जा प्राप्त
होता है।
तभी वह संसार में संत के रूप में सार्थक होता है। उसका संबंध केवल वस्त्र-आभूषण से नहीं है, किसी एक पंथ या संप्रदाय से नहीं है, बाहरी आडंबरों से नहीं है। वास्तव में आंतरिक उत्कर्ष ही संतत्व का लक्षण है। यह उत्कर्ष उसकी क्रियाओं में प्रकट होता है, यह संत की सबसे बड़ी पहचान है। संत का कर्म कभी स्वार्थ के अनुरूप नहीं होता, हमेशा परमार्थ के अनुरूप होता है।
5- आज लोगों को भी यह देखना होगा कि संत का केंद्रीकरण कहां है? कहां के लिए वह अपने जीवन को लगा रहा है, किस काम के लिए स्वयं को थका रहा है, किस उद्देश्य के लिए जीवन व्यतीत कर रहा है, उसके जीवन का परम लक्ष्य क्या है। निसंदेह, संत का उद्देश्य सम्पूर्ण संसार के लिए होना चाहिए। सभी लोगों को महा-आनंद मिल जाए, सभी लोग सुखी हो जाएं, यदि कोई ऐसा चाहता है और इसके लिए प्रयास करता है तो वैदिक सनातन धर्म में उसे संत कहा गया है। केवल सनातन धर्म में ही नहीं, दूसरी परंपराओं में भी महान संत हुए हैं। मुस्लिमों में भी एक धारा सूफियों की रही, जिन्होंने अपना जीवन समाज के हित में बिताया।
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