धरती धन न अपना Novel Summary - Jagdish Chandra

 

Dharti Dhan Na Apna

By Jagdish Chandra

Dharti Dhan Na Apna धरती धन अपना इसमें आप जगदीशचन्द्र द्वारा लिखित उपन्यासधरती धन अपना का Study करेंगे। यह उपन्यास भारतीय जाति व्यवस्था में हाशिए पर ढकेल दिए गए बहिष्कृतों का जीवन व्यतीत करने वाले दलितों की जीवन त्रासदी की मार्मिक अभिव्यक्ति है। मुख्य गाँव से बहिष्कृत बस्ती चमादड़ी में बसने वाली चमार जाति की पीड़ा उत्पीड़न को जगदीशचन्द्र ने यथार्थ की भूमि पर उतारा है। छुआछूत के व्यवहार से उपजा यातना संताप का मिलाजुला विद्रोही स्वर भी इस उपन्यास में अभिव्यक्त हुआ है। उपन्यास को आप इस इकाई के अध्ययन से पहले बाद में भी जरूर पढ़िए। 

इसे पढ़ने के बाद आप

भारतीय जातिव्यवस्था की निर्मिति के पीछे छुपे स्वार्थ निहित षडयंत्र के अंतर्गत इंसानों को जातियों के कटघरों में बाँट कर किसी एक जाति या वर्ण की श्रेष्ठता को बनाए रखने के प्रयासों को समझ सकेंगे, Boycott करार दी गईचमादड़ीमें रहने वाले दलितों के जीवन के विभिन्न पहलुओं से आप introduce हो सकेंगे,

मानव निर्मित जातिव्यवस्था में तथाकथित निम्न मानी गई जातियों में जन्म लेने से व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक धार्मिक संदर्भ किस तरह बदल जाते हैं,

इसकी आप समीक्षा कर सकेंगे, दलित जीवन त्रासदी के विविध संदर्भो से आप परिचित हो सकेंगे

छुआछूत और सामाजिक बहिष्कार के व्यवहार से तथाकथित उच्च मानी गई जातियों  के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्वार्थों की परिपूर्ति जाति अहं की तुष्टि की मानसिकता को समझ सकेंगे,

धर्म का सहारा लेकर धर्म के कटटर अनयायी इंसानों के प्रति कितने अमानवीय हो सकते हैं, इसे आप जान सकेंगे।

Dharti Dhan Na Apna उपन्यास और कहानी के पाठ्यक्रम में आपने हिंदी के महत्वपूर्ण उपन्यासों कहानियों का  अध्ययन किया है और इसी कड़ी में जगदीश चंद्र के महत्वपूर्ण उपन्यासधरती धन अपनाका आपको अध्ययन करना है।

धरती धन अपना स्व. जगदीश चंद्र का लेखन में पहला लेकिन प्रकाशन में दूसरा उपन्यास है। इस उपन्यास का लेखन तो मई 1955 में शुरु कर दिया था, लेकिन आठ अध्याय लिख कर छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने एक और उपन्यास लिखा, जोयादों के पहाड़शीर्षक से 1966 में छपा। कुछ दोस्तों के आग्रह से उन्होंने अपने पहले उपन्यास को आठ अध्याय से आगे लिखना शुरु किया, जो 1968 में पूरा हुआ और यही उपन्यास 1972 मेंधरती धन अपनाशीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के प्रकाशित होते ही साहित्यिक क्षेत्रों में इसका भरपूर स्वागत हुआ और अपने विषय के अछूतेपन के कारण उपन्यास खूब चर्चित हुआ।

धरती धन अपनाकी कहानी को लेखक ने 1988 के बाद फिर छुआ और इसके दूसरे खंड के रुप मेंनरककुंड में बासका Publish 1993 में हुआ। 1 अप्रैल 1996 में अकस्मात देहांत से पहले लेखक ने इसी उपन्यास का Third अंतिम खंड भी पूरा किया जोज़मीन अपनी तो थीशीर्षक से प्रकाशन हेतु तैयार है।

धरती धन अपनाके लेखक जगदीश चंद्र का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले में 23 नवंबर 1930 को हुआ। घोडेवाहा उनका पैतृक गाँव रलहन उनकी ननिहाल थी। दसूहा जालंधर में उनकी शिक्षा दीक्षा हई। उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.. की उपाधि प्राप्त की और फिर सरकारी नौकरी में अनेक जगहों पर रहे। सेवानिवृत होकर वे जालंधर में रहने लगे और यहीं पर 10 अप्रैल 1996 को अकस्मात उनका निधन हुआ।

Hindi के अतिरिक्त उन्होंने उर्दू पंजाबी में भी लिखा।पुराने घरउर्दू उडीकांसंग्रह पंजाबी में प्रकाशित हैं। हिंदी में 1966 मेंयादों के पहाड़उनका प्रथम उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसका विशेष नोटिस नहीं लिया गया। लेकिन 1972 मेंधरती धन अपनाके प्रकाशित होते ही जगदीश चंद्र को लेखक रुप में प्रतिष्ठा हासिल हई। इसके बाद तो उनकी सभी रचनाओ को सम्मान व्यापक पाठक वर्ग भी मिला। सेना में सेवारत रहने के अनुभवों को उन्होंनेआधा पुलऔरटुण्डा लाटउपन्यासों के द्वारा अभिव्यक्त किया।टुण्डा लाट का दूसरा अंतिम भागलाट की वापसीएक दैनिक समाचार पत्र में धारावाहिक रुप में छप चुका हैं, लेकिन अभी पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हुआ है।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी – “धरती धन अपना” (1972), “नरककुंड में बास” (1993) जमीन अपनी तो थी'(शीघ्र प्रकाशित हो रहा है) उपन्यासों के अतिरिक्त हिंदी में जगदीश चंद्र कापहली रपट’ (कहानी संग्रह) नेता का जन्म’ (नाटक) भी प्रकाशित हैं। एक रिपोर्ताजआप्रेशन ब्लू स्टार भी हाल में छपा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने छियासठ वर्ष के जीवन में जगदीश चंद्र चालीस वर्ष से कुछ अधिक समय रचनारत रहे और इन चार दशकों के सृजन काल में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण रचनाओं से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

धरती धन अपना , जगदीश चंद्र की उपन्यास त्रयी की रचना पंजाब के दोआबा क्षेत्र के दलित जीवन को केंद्र में रखकर की गई है। उन्होंनेधरती धन अपनामें रचना के अनुभव बताते हुए लिखा है कि बचपन किशोरावस्था में अपने ददिहाल ननिहाल में दलित घरों के जीवन को उन्होंने जितनी गहराई से देखा, उसका उनके संवेदनशील मन पर गहरा प्रभाव पड़ा जिससे आगे चल कर उनकी साहित्य लेखन की सृजनशीलता जागृत हुई। अपने बचपन किशोरावस्था के देखे महसूस किए दलित जीवन को जिस प्रकार उन्होंने अपनी उपन्यास त्रयी में प्रामाणिक रुप से प्रस्तुत किया, उसी से उनकी हिंदी के एक महत्वपूर्ण Novelist के रुप में प्रतिष्ठा बनी।धरती धन अपना केवल हिंदी का वरन भारत का एक प्रमुख उपन्यास माना गया, जिसके विदेशी भाषाओं फ्रेंच, जर्मन, रुसी, अंग्रेजी आदि में अनुवाद हुए है। भारत की प्रमुख भाषाओं में भी इसका अनुवाद हुआ और विदेशी विद्वानों ने इस उपन्यास की समीक्षाएँ भी प्रचुर मात्रा में की हैं।

 

धरती धन अपनाउपन्यास का आरंभ होता है काली के छह साल बाद कानपुर से अपने गाँव घोड़ेवाहा लौटने से| गाँव में काली की एक मात्र संबंधी उसकी चाची प्रतापी है। उसके Father and Mother Uncle का देहांत हो चुका हैं। काली को उसके चाचा-चाची ने ही पाल पोस कर बड़ा किया क्योंकि उसके मां-बाप उसके शैशव में ही चल बसे थे| काली का पिता मारवा Village का चर्चित पहलवान भी था। उसके गांव लौटने का एकमात्र कारण चाची से उसका मोह ही है। पौ फटने पर काली गांव के पास पहुंचता है। गांव में छह सालों में कोई तब्दीली नही हुई है। गलियों के कुत्ते भौंक-भौंक कर काली का स्वागत करते हैं और घर पर चाची को जीवित पाकर काली प्रसन्नता से अभिभूत हो उठता है। काली की चाची काली के लौटने की सूचना पूरे मुहल्ले को शक्कर बाँट कर देती है।

छह वर्ष के कानपुर प्रवास ने काली और गांव वालों के बीच एक दूरी सी गई है। चमारों के मुहल्ले में एक कोठा भी अभी तक पक्का नहीं हुआ है। मुहल्ले की औरतें काली से हंसी मजाक कर उसका अजनबीपन दूर करती हैं। छह साल कानपुर में मजदूरी कर काली कुछ कमाई कर गांव लौटा है इससे चमार होने पर भी गांव में उसके व्यक्तित्व का कुछ प्रभाव पडता है और कुछ गाँववासी उसे बाबू कालीदास कहते हैं।

गाँव में ज़मीनों के मालिक चौधरी हैं, एक दो बनिए दुकानदार है जमीनों पर तथा घरों में काम करने वाले दलित चमार हैं। चौधरी लोग बेबात चमारों से गाली-गलौच करते उन्हें पीटते रहते हैं। उपन्यास के शुरु में ही चौधरी हरनाम सिंह अपने खेत की फसल नष्ट करने के संदेह में जीतू की पिटाई करता है। हालाँकि वह निर्दोष है। मंगू चमार चौधरी हरनाम सिंह का गुलाम बना हुआ है, जबकि उसकी बहन ज्ञानों चौधरियों के अन्याय का विरोध करती है, जो काली को ज्ञानों के प्रति आकषिर्त करता है।

काली अपने कच्चे कोठे को गिरा कर पक्का मकान बनाना चाहता है और इसके लिए वह छज्जू शाह से सलाह लेने जाता है। छज्जू शाह उसे पक्का मकान बनाने के उपाय तो बताता है, लेकिन साथ ही काली को इस तथ्य से भी अवगत करा देता है कि जिन घरों में दलित लोग रह रहे हैं, वह जगह गाँव की सांझी जगहशामलातहै और इन घरों पर दलितों कामौरूसीअधिकार ही है अर्थात जब तक उनके खानदान का कोई व्यक्ति उस घर में रहता है तभी तक वे वहाँ रह सकते हैं। काली की गाँठ में पैसा देख कर गाँव का छज्जू शाह उससे उसके चाचा का लिया उधार उस पर ब्याज की रकम भी झटक लेता है।

काली का अपना घर पक्का करने के बारे में सोचना ही वास्तव में दलितों के शोषण पर टिकी ग्रामीण सामंती व्यवस्था के लिए विध्वंसात्मक कार्रवाई है, ऊपर से काली का चौधरियों के सामने आत्म सम्मान की भावना से पेश आना भी उनके दमनात्मक रवैये को चुनौती है। उसका अपना दलित समाज भी काली का प्रशंसक या समर्थक नहीं है। ज्ञानों या जीतू आदि कुछ गिने चुने प्रबुद्ध दलित युवक-युवतियों को छोड़ चमादड़ी के अधिकांश लोग काली से ईर्ष्या करते हैं। विशेषतः ज्ञानों का भाई मंगू उससे उलझा ही रहता है। एक बार काली के हाथ उसकी पिटाई भी होती है। काली के पड़ोसी निक्कू को भी मंगू काली से लड़वाता है। लेकिन धीरे-धीरे गांव में काली की प्रतिष्ठा बढ़ती है और साथ ही ज्ञानों और काली में प्रेमसंबंध भी विकसित होते हैं।

काली यद्यपि चमादड़ी में पहला पक्का मकान बनवा कर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाता है, लेकिन वह जिस किसी से भी मिलता हैमिस्त्री हो या छज्जू शाह सब उसके साथ चमार कह कर छुआछूत का व्यवहार करते हैं। जो उसे बहुत चुभता है। नंद सिंह इसी छुआछूत के व्यवहार से तंग आकर पहले सिख बना था, अब ईसाई बनता है, लेकिन छुआछूत फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ती। मंगू यद्यपि काली के प्रति शत्रुता रखता है, लेकिन चौधरियों द्वारा बार-बार उसेकुत्ता चमारकह कर पुकारा जाना भी काली को बहुत बुरा लगता है। गाँव का ईसाई पादरी या किताबी कामरेड डॉ. बिशनदास छुआछूत के व्यवहार को रोकने का कोई प्रयास करते नहीं दीखते।

काली अपने पिता मारवे की तरह कबड्डी का खिलाड़ी है। वह अपने खेल का जौहर भी गाँव में दिखाता है, लेकिन चौधरियों का लड़काहरदेवजानबूझ कर खेल में उसका कूल्हा तोड़ देता है, लालू पहलवान इस हरकत के लिए हरदेव को फटकारता है और काली का इलाज भी करता है।

काली की चाची प्रतापी की अचानक बीमारी झाड़-फूंक के कारण देहांत से कथा में नया मोड़ आता है, काली का मकान पक्का करने का सपना पूरा नहीं हो पाता। सिर्फ मकान बीच में ही छूट जाता है, उसकी कमाई के पैसे चाची द्वारा बनाए गहने-रुपये भी चाची की मृत्यु के बाद शोक जताने आई कोई पड़ोसिन ले उड़ती है, काली सब कुछ लुटा कर घास खोदने का धंधा करता है फिर लालू पहलवान के यहाँ मजदूरी करने लगता है।

गाँव में आई बाढ़ कथा का अगला मोड़ है। प्राकृतिक आपदा का सामना चौधरी और चमार मिल कर करते हैं, लेकिन चौधरियों के खेतों को बचाने के लिए दलित बेगार नहीं करना चाहते। तीन दिन के काम के बाद भी दिहाड़ी मिलने पर चौधरी-चमार संघर्ष शुरू होता है। चमारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है और वे भी काम से हड़ताल करते हैं। पादरी उनकी मदद करना चाहता है, लेकिन शर्त भी रखता है कि उन्हें उसके लिए ईशु की शरण में जाना चाहिए। डॉ. बिशनदास कामरेड टहल सिंह जैसे हवाई कामरेड दलितों की सहायता कर उन्हें भाषण पिलाते जलसा करने की घोषणा करते हैं। पंद्रह दिन तक बच्चों को भूख से बिलबिलाते हए देख कर चमारों का साहस जवाब दे देता है और वे आखिस्कर चौधरियों की शर्त को मान लेने के लिए विवश हो जाते हैं और दोनों ही पक्ष संघर्ष को व्यर्थ समझ आधे दिन की दिहाड़ी पर समझौता कर लेते हैं।

धरती धन अपनाका अंतिम पक्ष ज्ञानो और काली के प्रेम के त्रासद अंत को मार्मिकता से चित्रित करता है। ज्ञानो गर्भवती हो जाती है। काली के साथ उसकी शादी समाज को स्वीकार नहीं, गाँव उनके Love relation के कारण दोनों का दुश्मन हो जाता है। काली की प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है। लालू पहलवान उसे नौकरी से निकाल देता है। काली पड़ोस के कस्बे में मजदूरी करने लगता है ज्ञानो को लेकर भाग जाना चाहता है। दोनों अपना मिलनाजुलना भी बंद नहीं करते, परिणामतः ज्ञानो को उसकी मां भाई ज़हर देकर मार डालते हैं और काली गाँव से भाग जाता है।

काली के गाँव लौटने से थोड़े सुखद रूप में उपन्यास का आरंभ होता है, जबकि अत्यंत विषम परिस्थितियों में गाँव से जान बचा कर अपनी प्रेमिका की हत्या का मर्मान्तक दुख लेकर गाँव से चले जाने से उपन्यास का अंत होता है।

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