100% Free IGNOU BPSC-102 Solved Assignment 2024-25 Pdf / hardcopy

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निम्न वर्णनात्मक श्रेणी प्रश्नों के उत्तर लगभग 500 शब्दों (प्रत्येक) में दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 20 अंकों का है। 

1) भारतीय संविधान में उल्लेखित आपातकालीन प्रावधानों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। 

भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं। ये प्रावधान विशेष परिस्थितियों में लागू किए जाते हैं जब संविधान और कानून की सामान्य प्रक्रियाएँ संकट की स्थिति में होती हैं। भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं: 

1. राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) 

राष्ट्रीय आपातकाल तब लागू होता है जब केंद्र सरकार देश की सुरक्षा को खतरे में महसूस करती है। इसे संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक विस्तार से वर्णित किया गया है। राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति निम्नलिखित कारणों से घोषित की जा सकती है: 

सशस्त्र आक्रमण या आंतरिक अशांति: यदि देश की सुरक्षा पर बाहरी आक्रमण या आंतरिक अशांति का खतरा हो। 

आर्थिक संकट: जब आर्थिक स्थिति इतनी गंभीर हो कि देश की मौलिक अस्थिरता को प्रभावित कर सकती है। 

जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू होता है, तो केंद्र सरकार को व्यापक अधिकार मिलते हैं, जैसे कि राज्य सरकारों के अधिकार सीमित हो सकते हैं, और केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त होता है जो सामान्य स्थिति में राज्यों की विधायिकाओं के अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है। इसके अलावा, व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं पर भी अंकुश लगाया जा सकता है, और आपातकाल की अवधि के दौरान मौलिक अधिकारों में कमी हो सकती है। 

2. राज्य आपातकाल (State Emergency) 

राज्य आपातकाल संविधान के अनुच्छेद 356 और 357 के तहत लागू होता है और इसका उद्देश्य उस समय के लिए होता है जब एक राज्य की सरकार अपने कर्तव्यों को ठीक से निभाने में असमर्थ होती है। राज्य आपातकाल की स्थिति निम्नलिखित कारणों से लागू की जा सकती है: 

राज्य सरकार की विफलता: जब राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन करने में असफल रहती है या अपने कर्तव्यों को सही तरीके से नहीं निभाती है। 

संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन: जब राज्य की स्थिति संविधान के प्रावधानों के खिलाफ होती है और कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ जाती है। 

इस स्थिति में, केंद्र सरकार राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है। इसका मतलब है कि राज्य की कार्यकारी शक्तियाँ राष्ट्रपति के अधीन होंगी और राज्य विधानसभा को निलंबित किया जा सकता है। राष्ट्रपति के आदेश पर केंद्रीय सरकार राज्य के मामलों का प्रबंधन करती है। 

3. वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency) 

वित्तीय आपातकाल संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत लागू होता है और यह तब लागू होता है जब केंद्र सरकार यह मानती है कि देश की वित्तीय स्थिति इतनी खराब है कि इसके कारण देश की आर्थिक स्थिति को गंभीर खतरा हो सकता है। वित्तीय आपातकाल के तहत, केंद्र सरकार को विशेष अधिकार मिलते हैं: 

वित्तीय प्रबंधन: केंद्रीय सरकार को राज्य सरकारों के वित्तीय प्रबंधन पर अधिक नियंत्रण प्राप्त होता है। इसके अलावा, राज्यों को आर्थिक सहायता देने के नियमों में भी परिवर्तन किया जा सकता है। 

वेतन और भत्तों में कटौती: सरकारी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कटौती की जा सकती है। 

निष्कर्ष 

भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान सुरक्षा और स्थिरता के लिए एक महत्वपूर्ण साधन हैं। ये प्रावधान देश की संविधानिक व्यवस्था को बनाए रखने, राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने, और आपातकालीन परिस्थितियों में प्रभावी शासन की अनुमति देने के उद्देश्य से बनाए गए हैं। हालांकि, इन प्रावधानों का इस्तेमाल सावधानीपूर्वक और उचित परिस्थितियों में किया जाना चाहिए, ताकि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों की रक्षा की जा सके। 

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2.भारतीय संविधान को साकार रूप देने वाले दार्शनिक आधारों की चर्चा कीजिए। 

भारतीय संविधान को साकार रूप देने वाले दार्शनिक आधार संविधान के मौलिक सिद्धांतों और विचारधाराओं पर आधारित हैं। ये दार्शनिक आधार भारतीय समाज की विविधता और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए तैयार किए गए हैं, जिससे संविधान एक समावेशी और समृद्ध ढाँचा बन सका है। भारतीय संविधान के दार्शनिक आधार निम्नलिखित प्रमुख तत्वों पर आधारित हैं: 

1. सांविधानिक धर्मनिरपेक्षता (Constitutional Secularism) 

भारतीय संविधान का एक प्रमुख दार्शनिक आधार धर्मनिरपेक्षता है, जिसका तात्पर्य है कि राज्य का किसी भी धर्म के प्रति कोई विशेष पूर्वाग्रह नहीं होता। इसका मतलब यह है कि सभी धर्मों को समान सम्मान और समर्थन प्राप्त है और राज्य किसी भी धर्म को आधिकारिक धर्म नहीं मानता। इस सिद्धांत के तहत, राज्य धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है और सभी नागरिकों को अपने धार्मिक विश्वासों का पालन करने की स्वतंत्रता होती है। 

2. लोकतंत्र (Democracy) 

भारतीय संविधान का एक अन्य महत्वपूर्ण दार्शनिक आधार लोकतंत्र है, जो कि लोगों की स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत पर आधारित है। लोकतंत्र का तात्पर्य है कि सत्ता का स्रोत जनता होती है और सभी नागरिकों को सरकार के गठन और कार्यप्रणाली में भागीदारी का अधिकार होता है। संविधान ने एक संसदीय प्रणाली का गठन किया है, जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के विभिन्न अंग स्वतंत्र और संतुलित तरीके से काम करते हैं। 

3. सामाजिक न्याय (Social Justice) 

सामाजिक न्याय भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण दार्शनिक आधार है, जो समाज में समानता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत है। इसका उद्देश्य कमजोर और पिछड़े वर्गों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें समाज में समान अवसर प्रदान करना है। संविधान ने विशेष प्रावधान किए हैं जैसे कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण और विशेष योजनाएं, जो सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देती हैं। 

4. समानता (Equality) 

समानता का सिद्धांत भारतीय संविधान के केंद्रीय स्तंभों में से एक है। यह सिद्धांत सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करने का उद्देश्य रखता है। संविधान ने नागरिकों को जाति, धर्म, लिंग, या नस्ल के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा दी है और समानता के अधिकार की गारंटी दी है। अनुच्छेद 14 के तहत, सभी नागरिकों को कानूनी समानता का अधिकार प्राप्त है, जिससे कोई भी कानून किसी विशेष व्यक्ति या समूह के खिलाफ भेदभाव नहीं कर सकता। 

5. मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) 

भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का प्रावधान, जैसे कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और असहमति की स्वतंत्रता, एक महत्वपूर्ण दार्शनिक आधार है। ये अधिकार संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 तक विस्तार से वर्णित हैं और नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के प्रति सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन अधिकारों का उद्देश्य प्रत्येक नागरिक की मानव गरिमा को बनाए रखना है। 

6. संविधानिक राज्य (Constitutional State) 

भारतीय संविधान एक संविधानिक राज्य के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें सभी सरकारी संस्थाएं संविधान के तहत कार्य करती हैं। इसका तात्पर्य है कि राज्य की सभी गतिविधियाँ और निर्णय संविधान के प्रावधानों के अनुरूप होने चाहिए। संविधान ने शक्ति के विभाजन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और संविधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान किए हैं। 

7. संवैधानिक अम्बेडकरवाद (Constitutional Ambedkarism) 

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारतीय संविधान को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी विचारधारा ने संविधान के निर्माण में सामाजिक न्याय, समानता और स्वतंत्रता के मूल तत्वों को समाहित किया। अंबेडकर का दृष्टिकोण भारतीय समाज की सामाजिक और जातिगत विषमताओं को समाप्त करने और सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करने के प्रति प्रतिबद्ध था।  

निष्कर्ष 

भारतीय संविधान का दार्शनिक आधार विविधता और समावेशिता पर आधारित है। यह धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, समानता, मौलिक अधिकार, संविधानिक राज्य और अम्बेडकरवाद के सिद्धांतों को समेटे हुए है, जो एक समृद्ध और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। इन दार्शनिक आधारों ने भारतीय संविधान को एक जीवंत और प्रगतिशील दस्तावेज बनाया है, जो समय के साथ बदलते सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्यों के अनुसार अद्यतित रहता है। 

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सत्रीय कार्य II 

निम्न मध्यम श्रेणी प्रश्नों के उत्तर लगभग 250 शब्दों (प्रत्येक) में दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 10 अंकों का है। 

1) संसदीय समितियों के कार्य क्या है? 

संसदीय समितियाँ भारतीय संसद के कार्यों को प्रभावी और कुशलतापूर्वक संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये समितियाँ विशेष विषयों या कार्यों पर गहन अध्ययन और समीक्षा करती हैं और संसद को सटीक और व्यावहारिक सिफारिशें प्रदान करती हैं। संसदीय समितियों के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं: 

विधायी निरीक्षण: समितियाँ विधेयकों और प्रस्तावित कानूनों की समीक्षा करती हैं। वे उन पर चर्चा करती हैं, संशोधन का सुझाव देती हैं, और संसद को सूचित करती हैं कि क्या विधेयक पारित किया जाना चाहिए या उसमें सुधार की आवश्यकता है। 

कार्यपालिका की निगरानी: समितियाँ सरकार और इसके विभागों के कामकाज की निगरानी करती हैं। वे सरकारी योजनाओं, नीतियों, और उनके कार्यान्वयन की समीक्षा करती हैं और सुझाव देती हैं कि कैसे सुधार किया जा सकता है। 

खर्च की जांच: समिति बजट की समीक्षा करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सरकारी खर्च उचित और प्रभावी है। वे वित्तीय अनियमितताओं की जांच करती हैं और संसद को रिपोर्ट प्रस्तुत करती हैं। 

विशेष मुद्दों की समीक्षा: समितियाँ विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर गहन अध्ययन करती हैं और संसद को महत्वपूर्ण सिफारिशें देती हैं। 

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2)न्यायिक समीक्षा के दायरे और महत्त्व को रेखांकित कीजिए। 

न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से न्यायपालिका संविधान और कानूनों की संवैधानिकता की समीक्षा करती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी सरकारी गतिविधियाँ और विधायिका के निर्णय संविधान के अनुरूप हों। न्यायिक समीक्षा के दायरे और महत्त्व को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है: 

दायरा: 

संविधान की संवैधानिकता: न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत, न्यायालय यह जांचता है कि कोई भी विधेयक, कानून, या सरकारी आदेश संविधान के प्रावधानों के अनुरूप है या नहीं। अगर कोई कानून संविधान का उल्लंघन करता है, तो न्यायालय उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है। 

अधिकारों की रक्षा: न्यायपालिका मौलिक अधिकारों और अन्य संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करती है। यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो न्यायालय उनके संरक्षण के लिए हस्तक्षेप कर सकता है। 

प्रशासनिक निर्णयों की समीक्षा: न्यायपालिका सरकारी अधिकारियों और एजेंसियों के निर्णयों की कानूनी वैधता की समीक्षा करती है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे कानूनी मानदंडों का पालन कर रहे हैं। 

महत्त्व: 

संविधान की रक्षा: न्यायिक समीक्षा संविधान की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सभी कानून और सरकारी निर्णय संविधान के अनुरूप हों। 

लोकतंत्र की मजबूती: न्यायिक समीक्षा से लोकतंत्र मजबूत होता है क्योंकि यह सरकार के असीमित शक्ति के खिलाफ एक चेक प्रदान करती है और सुनिश्चित करती है कि सरकार के निर्णय और कार्रवाई पारदर्शी और जिम्मेदार हों। 

मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: यह सुनिश्चित करती है कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो और किसी भी सरकारी निर्णय से प्रभावित व्यक्तियों को न्याय प्राप्त हो सके। 

इस प्रकार, न्यायिक समीक्षा केवल संविधान और कानून की रक्षा करती है, बल्कि यह लोकतांत्रिक संस्थाओं की पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को भी सुनिश्चित करती है। 

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3) भारत के राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिए। 

भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रक्रिया है, जो सीधे तौर पर देश के सर्वोच्च पद की नियुक्ति से जुड़ी होती है। राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया निम्नलिखित प्रमुख चरणों में होती है: 

1. चुनाव आयोग की भूमिका: 

राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया का संचालन भारत के चुनाव आयोग द्वारा किया जाता है। चुनाव आयोग चुनाव की तिथियाँ निर्धारित करता है, मतदान की व्यवस्था करता है और परिणामों की घोषणा करता है। 

2. उम्मीदवार की नियुक्ति: 

राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारों का नामांकन करने का अधिकार किसी भी मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी या एक स्वतंत्र उम्मीदवार को होता है। उम्मीदवार को निर्दिष्ट संख्या में प्रस्तावक और अनुमोदक (नॉमिनेटर और सेकोन्डर) की आवश्यकताएँ पूरी करनी होती हैं, जो आमतौर पर प्रत्येक राज्यसभा सदस्य और लोकसभा सदस्य से प्राप्त होती हैं। 

3. मतदाता सूची: 

राष्ट्रपति चुनाव में मतदान करने वाले मतदाता केंद्र और राज्य विधायिकाओं के सदस्य होते हैं। ये मतदाता तीन श्रेणियों में विभाजित होते हैं: 

लोकसभा सदस्य: लोकसभा के सभी सदस्य। 

राज्य विधानसभाओं के सदस्य: प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभाओं के सदस्य। 

राज्यसभा के सदस्य: राज्यसभा के सदस्य जो राष्ट्रपति चुनाव में मतदान का अधिकार रखते हैं। 

4. मतदान की प्रक्रिया: 

राष्ट्रपति चुनाव में मतदान प्रत्यक्ष नहीं होता। इसके बजाय, एक विशेष प्रणाली का उपयोग किया जाता है, जिसे "संपादित वोट" (Single Transferable Vote) प्रणाली कहा जाता है। इसके तहत, प्रत्येक मतदाता को एक प्राथमिकता क्रम में वोट देने का अधिकार होता है। यह प्रणाली बहुमत के बजाय एक संख्या प्रणाली पर आधारित होती है, जिसमें मतपत्रों को प्राथमिकताओं के आधार पर गिना जाता है। 

5. वोटों की गिनती और परिणाम: 

मतदान के बाद, चुनाव आयोग द्वारा प्राप्त वोटों की गिनती की जाती है। इस प्रक्रिया में प्रत्येक उम्मीदवार के लिए प्राप्त वोटों को प्राथमिकता के अनुसार गिना जाता है। उम्मीदवार को राष्ट्रपति बनने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त करना होता है। यह बहुमत एक विशेष गणना प्रणाली के आधार पर निर्धारित होता है, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के वोटों को विश्लेषित किया जाता है। 

6. विजेता की घोषणा: 

जिस उम्मीदवार को आवश्यक बहुमत प्राप्त होता है, उसे राष्ट्रपति के रूप में घोषित कर दिया जाता है। नए राष्ट्रपति को भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ दिलाई जाती है और वह कार्यभार ग्रहण करता है। 

इस प्रकार, भारत के राष्ट्रपति का चुनाव एक विस्तृत और संवैधानिक प्रक्रिया है, जो देश के सर्वोच्च पद के लिए योग्य और सक्षम व्यक्ति की नियुक्ति को सुनिश्चित करती है। 

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सत्रीय कार्य - III 

निम्न लघु श्रेणी प्रश्नों के उत्तर लगभग 100 शब्दों (प्रत्येक) में दीजिए। प्रत्येक प्रश्न 6 अंकों का है। 

1) राज्यसभा की विशिष्ट शक्तियों का वर्णन कीजिए। 

राज्यसभा, भारत की संसद का उच्च सदन, कुछ विशिष्ट शक्तियों और अधिकारों का प्रयोग करता है जो इसे लोकसभा से अलग करते हैं। राज्यसभा की प्रमुख विशिष्ट शक्तियाँ निम्नलिखित हैं: 

विधेयक की समीक्षा और संशोधन: राज्यसभा किसी भी विधेयक की समीक्षा कर सकती है और उसमें संशोधन का सुझाव दे सकती है। हालांकि, कुछ विशेष प्रकार के विधेयक, जैसे कि धन विधेयक, केवल लोकसभा में ही प्रस्तुत किए जाते हैं और राज्यसभा में केवल सुझाव देने की प्रक्रिया होती है। 

संविधान संशोधन: संविधान संशोधन प्रस्ताव को राज्यसभा द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक है। राज्यसभा के पास संविधान में बदलाव के प्रस्ताव पर विचार और मतदान का अधिकार होता है। 

संसदीय समितियों का गठन: राज्यसभा विभिन्न संसदीय समितियों का गठन कर सकती है और इन समितियों के माध्यम से विभिन्न मुद्दों पर गहन अध्ययन और जांच कर सकती है। 

सरकारी कार्यों की निगरानी: राज्यसभा सरकारी नीतियों और कार्यों की निगरानी करती है, और इसकी विशेष समितियाँ सरकारी खर्च और योजनाओं की समीक्षा करती हैं। 

ये शक्तियाँ राज्यसभा को एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बनाती हैं और इसे विधायी और संविधानिक प्रक्रियाओं में योगदान देने की क्षमता प्रदान करती हैं। 

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2.पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए निर्धारित विशेष प्रावधानों की व्याख्या कीजिए। 

पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भारतीय संविधान और अन्य कानूनों में कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं, जो इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक, भौगोलिक, और सामाजिक विविधताओं को ध्यान में रखते हुए बनाये गए हैं। ये प्रावधान निम्नलिखित हैं: 

आदिवासी क्षेत्रों का संरक्षण (प्रस्तावित अनुसूचित क्षेत्र): संविधान के अनुच्छेद 244 और 244A के तहत, कुछ पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों को विशेष दर्जा दिया गया है, जिनमें विशेष स्वायत्तता और प्रशासनिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। यह प्रावधान इन क्षेत्रों की पारंपरिक संस्कृति और जीवनशैली को सुरक्षित रखने के लिए हैं। 

स्वायत्त क्षेत्र: अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों और स्वायत्त शासित क्षेत्रों की व्यवस्था की गई है, जो स्थानीय लोगों को अपने विकास और प्रशासन पर नियंत्रण रखने का अधिकार देती हैं। 

विशेष प्रावधान और सहायक योजनाएँ: इन क्षेत्रों के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए केंद्र सरकार द्वारा विशेष योजनाएँ और प्रावधान लागू किए जाते हैं, जैसे कि विकास योजनाओं, आर्थिक सहायता और शैक्षिक अवसरों में विशेष प्राथमिकता। 

ये प्रावधान पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों की विशिष्ट आवश्यकताओं और चुनौतियों को समझते हुए उनके समुचित विकास और सांस्कृतिक संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

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3.ग्राम पंचायत की संरचना और भूमिका की व्याख्या कीजिए। 

ग्राम पंचायत एक स्थानीय स्वशासन संस्था है जो ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार के निचले स्तर पर काम करती है। इसकी संरचना और भूमिका निम्नलिखित हैं: 

संरचना: 

ग्राम प्रधान: ग्राम पंचायत का प्रमुख होता है, जिसे ग्राम प्रधान या सरपंच कहा जाता है। वह पंचायत की गतिविधियों का नेतृत्व करता है और प्रशासनिक कार्यों की देखरेख करता है। 

पंच: ग्राम प्रधान के साथ, पंचायत में कुछ पंचायत सदस्य (पंच) होते हैं, जिनका चुनाव ग्रामवासियों द्वारा किया जाता है। ये सदस्य ग्राम पंचायत के विभिन्न कार्यों और निर्णयों में सहयोग प्रदान करते हैं। 

ग्राम पंचायत कार्यालय: यह कार्यालय पंचायत के कार्यों के संचालन के लिए जिम्मेदार होता है, जिसमें कर्मचारियों और अधिकारीयों की व्यवस्था होती है। 

भूमिका: 

स्थानीय विकास: ग्राम पंचायत स्थानीय विकास परियोजनाओं को लागू करती है, जैसे कि सड़क निर्माण, जल आपूर्ति, और स्कूलों का विकास। 

सामाजिक सेवाएँ: यह सामाजिक कल्याण योजनाओं, स्वास्थ्य सेवाओं, और स्वच्छता कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करती है। 

विवाद निवारण: पंचायत स्थानीय विवादों का समाधान करती है और सामुदायिक मुद्दों पर निर्णय लेती है। 

कर और राजस्व संग्रह: ग्राम पंचायत स्थानीय स्तर पर कर और राजस्व संग्रह करती है, जो विकास कार्यों के लिए उपयोगी होता है। 

ग्राम पंचायत ग्रामीण प्रशासन को अधिक प्रभावी और समर्पित बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

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4.छठी अनुसूची में समाहित प्रावधानों का वर्णन कीजिए। 

छठी अनुसूची भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण अनुसूची है, जो विशेष रूप से असम, मेघालय, मिजोरम, और त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान करती है। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं: 

स्वायत्त जिला परिषदें: छठी अनुसूची के तहत, आदिवासी क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों (Autonomous District Councils) और स्वायत्त राज्य परिषदों (Autonomous State Councils) का गठन किया जाता है। ये परिषदें स्थानीय स्वशासन की जिम्मेदारी निभाती हैं और क्षेत्रीय विकास, प्रशासनिक कार्यों, और सांस्कृतिक संरक्षण का प्रबंधन करती हैं। 

स्वायत्तता और अधिकार: ये परिषदें विभिन्न स्वायत्त अधिकारों के साथ काम करती हैं, जैसे कि भूमि उपयोग, संसाधन प्रबंधन, और सामाजिक कल्याण योजनाओं का संचालन। ये स्थानीय स्तर पर कानून बनाने और प्रशासनिक फैसले लेने के लिए स्वतंत्र होती हैं। 

सदस्य निर्वाचन: इन परिषदों के सदस्यों का निर्वाचन सीधे स्थानीय जनसंख्या द्वारा किया जाता है, जिससे स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित होती है। 

संविधानिक संरक्षण: छठी अनुसूची इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक विशिष्टताओं को संरक्षित करने के लिए संविधानिक सुरक्षा प्रदान करती है। 

छठी अनुसूची का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों की स्वायत्तता को बनाए रखना और उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करना है। 

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5.मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों की तुलना कीजिए 

मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्व भारतीय संविधान के दो महत्वपूर्ण हिस्से हैं, लेकिन इनके उद्देश्यों और प्रभाव में अंतर है: 

मौलिक अधिकार: 

स्वतंत्रता और सुरक्षा: मौलिक अधिकार संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 तक वर्णित हैं और ये नागरिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, और न्याय के अधिकार प्रदान करते हैं। इनमें जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, धर्म की स्वतंत्रता, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शामिल हैं। 

कानूनी प्रभाव: ये अधिकार न्यायालयों द्वारा लागू किए जा सकते हैं और किसी भी व्यक्ति के द्वारा संविधान के उल्लंघन के खिलाफ सीधे कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। 

प्राथमिकता: मौलिक अधिकारों को संविधान की सर्वोच्चता के तहत प्रमुख माना जाता है और राज्य को इन अधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं है। 

राज्य के नीति निर्देशक तत्व: 

सामाजिक और आर्थिक दिशा: राज्य के नीति निर्देशक तत्व (अनुच्छेद 36 से 51) सरकार को सामाजिक और आर्थिक नीतियों को दिशा देने के लिए मार्गदर्शन करते हैं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और श्रमिकों के अधिकार। 

अनुसरण के लिए: ये तत्व संविधान द्वारा अनुशंसित हैं और इनका पालन करना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन ये अधिकार कानूनी रूप से लागू नहीं होते हैं और इनके उल्लंघन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती। 

लंबी अवधि का उद्देश्य: नीति निर्देशक तत्व समाज के सामाजिक और आर्थिक सुधार के लिए दीर्घकालिक दृष्टिकोण को प्रदान करते हैं और ये सरकार की योजनाओं और नीतियों को मार्गदर्शित करते हैं। 

सारांश में, मौलिक अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय की रक्षा के लिए कानूनी रूप से लागू होते हैं, जबकि नीति निर्देशक तत्व सामाजिक और आर्थिक सुधार के लिए सरकार को दिशा देने वाले मार्गदर्शक होते हैं। 

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